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Inflation in India, GDP of India

Inflation in India, GDP of India

प. दीनदयाल उपाध्याय जी और राष्ट्रीय जीवन दर्शन

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी , प. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया। भारतीय राजनीतिक क्षितीज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया। अनाकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्चकोटि के दार्शनिक थे.किसी प्रकार भौतिक माया-मोह उनको छू तक नहीं सका। वे न देश के प्रधानमंत्री थे, न राष्ट्रपति फिर भी दिल्ली में उनके पार्थिव शरीर को अपने अंतिम प्रणाम करने पांच लाख से भी अधिक जनता उमड़ पड़ी थी. तेरहवीं के दिन प्रयाग में अस्थि-विसर्जन के समय दो लाख से अधिक लोग अपनी भावभीनी श्रध्दांजलि अर्पित करने को एकत्रित हुए थे.

जनसंघ के राष्ट्र जीवन-दर्शन के निर्माता दीनदयाल जी का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुर्नरंचना के प्रयासों के लिए विशुध्द भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था. दीनदयाल जी के विचारों का अध्ययन करते समय उनकी वैचारिक प्रक्रिया, जिसका आधार संस्कृति तथा धर्म है, को समझना आवश्यक है. यहाँ धर्म का अर्थ व्यापक है. भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे धर्मके नाम से जाना जाता था, के द्वारा होता था. धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिएर् कर्तव्य-संहिता का निर्धारण करता था.

दीनदयालजी द्वारा रचित जनसंघ के राष्ट्र जीवन-दर्शन के पाँचवे, छठे एवं आठवें सूत्रों में धर्म, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, प्रजातंत्र और राष्ट्रीय तत्वदृष्टि का वर्णन है, जिससे जनसंध की राष्ट्रीय जीवनदर्शन बनी है. व्यक्ति के विकास के लिए जनसंध ने भारतीय सामाजिक दर्शन मे वर्णित पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा आदर्श राष्ट्र के रूप में धर्म राज्य एक असम्प्रदायिक राज्य को स्वीकारा गया है. राष्ट्रीय प्रश्नों की ओर देखने की राष्ट्रीय तत्वदृष्टि इसमें से विकसित हुई है और उसी से जनसंध की नीति बनी है. ये दोनो विषय इतने व्यापक एवं विस्तरित है, कि इसकी व्याख्या में कई पुस्तके लिखी जा सकती है. मै संक्षेप में व्यवहार में समझने लायक विवेचना इन चन्द पंक्तियों मे कर रहा हूँ.

इनके अर्थ की गहराई को समझने के लिए मैं अपने परम पूज्य गुरु निवृत शंकराचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी के आशीर्वाद रुपी विचार आपके समक्ष रख रहा हूँ-

भारतीय संस्कृति के प्रासाद को ऋषियों ने धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के चार सुदृढ़ स्तम्भों के उपर निर्मित किया है. प्राचीन महर्षियों के अनुसार- धर्मे नैव प्रजा सर्वा रक्षन्तस्य परस्परम्। धर्म द्वारा लोग अपनी रक्षा करते थे. धर्मतंत्र का प्रभाव इतना बड़ा था कि राजतंत्र की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी. शाश्वत जीवन-तत्व के बारे में हिन्दु धर्म का यह मानना है कि जीवन को परिपूर्ण करने के लिए आवश्यक साधनों में युग के अनुसार परिवर्तन करते समय संकोच नहीं करना चाहिए. धुएँ से अग्री की तरह सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होतें हैं, परन्तु मनुष्य संसार रुपी पानी में रहकर अपने जीवन-कमल को विकसित करता रहे. आशा , कामना, आसक्ति का त्याग कर दे, तो उसे कोई दोष नहीं लगता है. धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और काम से योग एवं सुख उपलब्ध होतें हैं. धर्म से ही ऐश्वर्य ,एकाग्रता और उत्तम स्वर्गीय गति प्राप्त होते हैं.

दीनदयालजी के अनुसार धर्मराज्य, विधान का राज्य है. विधान का राज्य, अधिकारों की उपेक्षा कर्तव्य पर बल देने वाला राज्य है।र् कत्ताव्यप्रधान राज्य में भी शासन , न्यायसंस्था, लोकप्रतिनिधि, सब नियमानुसार ही चलते हैं। व्यक्तियों और संस्थाओं पर केवल धर्म का बंधन होता है। औक्सफोर्ड डिक्सनेरी के शब्दानुसार -विधान का राज्य; धर्म संहिता की वह किताब है जिसका निष्ठा से अनुपालन होता है; यह न्यायालय का आदेश है।समान्य परिभाषा में एक ऐसा तंत्र जहाँ कानून जनता में सर्वमान्य हो; जिसका अभिप्राय( अर्थ ) स्पष्ट हो; तथा सभी व्यक्तियों पर समानरुप से लागू हो। ये राजनैतिक और नागरिक स्वतंत्रता को आदर्श मानते हुए उसका समर्थन करते है, जिससे कि मानवाधिकार की रक्षा में विश्व में अहम् भूमिका निभाई गई है। विधान के राज्य एवं उदार प्रजातंत्र में अतिगम्भीर सम्बन्ध है। विधान का राज्य व्यक्तिगत अधिकार एवं स्वतत्रंता को बल देता है, जो प्रजातांत्रिक सरकार का आधार है। सरकारें विधान के राज्य की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए जनता के अधिकारों के प्रति सचेत रहती हैं, वहीं एक संविधान ,जनता में कानून की स्वीकृति पर निर्भर करता है। विधि एवं विधान के राज्य में कुछ खास अन्तर हैं- जो सरकारें प्राकृतिक नियम, मर्यादा, व्यवहार विधि को आर्दश मानते हुए, किसी प्रकार के पक्षपात नहीं करती तथा न्याय के संस्थानों को प्राथमिकता देती हैं ,वे विधान द्वारा स्थापित होती हैं।

भारतीय संविधान के निर्माताओं ने गहन अध्ययन एवं मनन् के पष्चात् चार विधान के सिध्दांतों न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बन्धुता की संरचना की जो कि हमारे संविधान के आधारभूत स्तंभ थे, जिसे बाद में शासनाधयक्षों ने अपने स्वार्थ हेतु , वोटबैक की नीति के तहत बदल दिया। इसलिए भारतवर्ष में विधान का राज्य पूर्णत: कायम नहीं है। अस्तु आज भारतवर्ष में वर्ग विरोध सर्वव्यापी है।

दीनदयालजी ने राष्ट्रवाद का विचार भी संस्कृति तथा धर्म के परिवेश में किया है। हिन्दु विचार के अनुसार व्यक्ति और समाज अभिन्ना होते हैं। भारतीय विचार-प्रणाली समाजनिरपेक्ष व्यक्ति का अस्तित्व ही संभव नहीं मानती।

दीनदयालजी को जनसंध के आर्थिक नीति के रचनाकार बताया जाता है। आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। उन्होने इस पर लिखा है- राष्ट्रवाद, जनतंत्र, समाजवाद,साम्यवाद सब समानता पर आधारित प्रणालियाँ हैं, परन्तु कोई भी परिपूर्ण नहीं। राष्ट्रवाद के कारण विश्वशांति के लिए संकट उत्पन्ना होता है, पूंजीवाद प्रजातंत्र को ग्रस लेता है और उसमे से शोषण होता है , समाजवाद, पूंजीवाद का नाश करता है, किन्तु उनके कारण प्रजातंत्र का विनाश होता है और व्यक्ति का स्वातंत्र्य खतरे में पड़ जाता है। इसलिए धर्मराज्य, प्रजातंत्र, सामाजिक समानता एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण हमारे ध्येय होने चाहिए। जो इन सबका समावेश करे, ऐसा वादहमें चाहिए। फिर आप उसे जो चाहे नाम दिजिए , हिन्दुत्ववाद या मानवतावाद। उन्होने इन सभी प्रणालीयों का अध्ययन एवं मनन् करने के बाद एकात्म मानववाद के सिध्दान्त को जन्म दिया। राष्ट्रवादी , समन्वयवादी एवं पूर्णतावादी लोगों का मानना है कि पश्चिम की भौतिकता का तालमेल भारत की अध्यात्मिकता के साथ बैठाना चाहिए। भौतिक एवं अध्यात्मिक दो पृथक् भागों में जीवन का विचार नहीं किया जा सकता। यही एकात्म मानववाद के बीज है, जिसमे गीता पर आधारित कर्मयोग का प्रतिपादन किया गया है।

विचार-स्वातन्त्रय के इस युग में मानव-कल्याण के लिए अनेक विचारधाराओं को पनपने का अवसर मिला है। इसमे साम्यवाद, पूँजीवाद, अन्त्योदय, सर्वोदय आदि मुख्य है। किन्तु चराचर जगत् को संतुलित, स्वस्थ व सुंदर बनाकर मनुष्य मात्र पूर्णता की ओर ले जा सकने वाला एकमात्र प्रक्रम सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जीवन-विज्ञान, जीवन-कला व जीवन-दर्शन है।

संसार में सब कुछ निर्माण करना बहुत सरल है, परन्तु व्यक्ति का निर्माण करना अत्यन्त कठिन काम है. इसलिए चाणक्य ने कहा है- इषु: हन्यात् नवा हन्यात् इषुमुक्ते धन्ष्मत: किन्तु बुध्दिता हन्यात् राष्ट्रं राजकम्  बुध्दिमतो पृष्टा हन्यात् राष्ट्रं सराजकम्॥ बुध्दिमान की बुध्दि ठीक से चलने लगे तो अपनी बुध्दि की उत्कृष्टता से राष्ट्र और राजा दोनो का परिवर्तन कर सकता है. इसलिए यह सिद्ध बात है कि प्रबुध्दजन चिन्तन करें तो बहुत कुछ कर सकते हैं. समाज में हो रहे नैतिक गिरावट के लिए बुध्दिजीवियों की अकर्मन्यता अधिक जिम्मेवार है, बनिस्पत कि आम आवाम द्वारा किए जा रहे निकृष्ट कर्म।

 

-वी.के. सिंह

प्रवक्ता में 11.02. 2010 में छापा गया


Retail Trade and its importance to the Indian Economy in Hindi



खुदरा व्यापार और भारतीय  अर्थव्यवस्था मे उसका महत्व

भारत में खुदरा व्यापार इसके अर्थव्यवस्था और अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 15% है और यह भारतीय अर्थव्यवस्था के स्तंभों में से एक है. भारतवर्ष मे कृषि के बाद खुदरा व्यापार में लोगों को  सबसे बड़ी संख्या मे रोजगार मिलता है.  भारतीय खुदरा बाजार अनुमानतः  450 अरब डॉलर अमेरिका या 2,34,952.20 करोड़ रुपए का हैऔर आर्थिक मूल्याकन से दुनिया के शीर्ष पांच आर्थिक खुदरा बाजार मे से एक है. ए॓सा अनुमान है कि भारत के खुदरा संगठित उद्योग, प्रत्यक्ष या सीधे रूप से  40 मिलियन या 4 करोड़ भारतीयों को (भारतीय जनसंख्या का 3.3%) रोजगार देता है . जिसमे  खुदरा आयोजित विक्री केन्द्र 1.3 मिलियन के आसपास हैं. यदि हम असंगठित क्षेत्र और संगठित क्षेत्र और उनके आश्रितों के कर्मचारियों को भी शामिल कर लें तो , यह आंकड़ा 30 करोड़ लोगों से ऊपर हो जाएगा. भारत में हर 1000 लोगों के लिए 11 खुदरा आयोजित विक्री केन्द्र / दुकान हैं .संगठित खुदरा बाजार सालाना 35 प्रतिशत के दर से बढ़ रही है जबकि असंगठित खुदरा क्षेत्र की विकास दर 6 प्रतिशत से कम आंकी गई है.
   दुनिया भर में यह तथ्य सर्वमान्य है  की एक खुदरा दुकान खोलने के लिए भारी निवेश करना  आवश्यक नहीं है. एक खुदरा दुकान खोलने के लिए मात्र बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है. अत्याधुनिक तकनीक खुदरा व्यापार के लिए आवश्यक नहीं है. छोटे खुदरा दुकान अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं एक बड़े खुदरा स्टोरों की एक श्रृंखला के तुलना में.  यदि भारतवर्ष में खुदरा व्यापार में  प्रत्यक्ष  विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति दी गई तो विदेशी कंपनियां पहले थोक में उत्पादकों से माल खरीद कर कम मार्जिन पर बेचेंगे और इस तरह से वे छोटे व्यापारियों  को कारोबार से  बाहर कर देंगी  और जब छोटे व्यापारी बाहर हो जाएंगे तो  व्यापार और माल पर उनका एकाधिकार हो  जाएगा और तब वे वस्तुओं की कीमत बढ़ा कर मनमानी कीमत आम आवाम से वसूलेंगे .इस तरीके को हम लोग प्रीडेटिव पॉलिसी के रूप में जानते हैं .
   स्वतंत्र दुकानें  बंद हो जायेंगी जिससे बड़े पैमाने पर लोग बेरोजगार हो जायेंगे.  हमने यह खेल सॉफ्ट ड्रिंक उद्योग मे देखा है जहाँ पेप्सी और कोक ने भारतीय शीतल पेय उद्योग के कंपनियों को बंद करा दिया.  खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के अनुमती से विदेशी लोगों का ज्यादा फायदा होगा, काम भारतीय लोग करेगे और फायदा विदेशी लोग  ले  जायेंगे .  भारत के खुदरा व्यापार मे विदेशी पूंजी निवेशकों की अवशयकता नहीं है .
खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश की अनुमती देकर मनमोहन सिंह और यू पी ए सरकार ने छोटे व्यापारियों के  रोजगार को छीनने की पूरी तैयारी कर ली है. सरकार का यह दावा है कि इससे कृषि और उपभोक्ताओं को फायदा होगा , अगर यह सच है तो, विश्व का सबसे सम्पन्न  देश अमेरिका के विश्व  सबसे बड़े खुदरा व्यापार स्टोर वाल्मार्ट जिसका अमेरिका खुदरा व्यापार में 85 फीसदी हिस्सेदारी है , के  रहते अमेरिका के किसानो को कृषि छोड़ने को क्यों मजबूर हो रहे हैं और 1985 से 2009 के दौरान अमेरिका ने 12.50 लाख करोड़ रुपए की अनुदान(सब्सिडि) अपने किसानों को क्यों  दिया॰ क्यों अमेरिका के सबसे बड़े शहर न्यूयार्क सिटी के सजग लोगों ,व्यापारिक और मजदूर संघों और जागरूक निर्वाचित प्रतिनिधियों ने मिलकर वाल्मार्ट के लगातार वहाँ स्टोर खोलने की कोशिशों को नाकामयाब किया ? न्यूयार्क सिटी मे आज भी वाल्मार्ट स्टोर नहीं है .
 खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के अनुमती से विदेशी लोगों का ज्यादा फायदा होगा, काम भारतीय लोग करेगे और फायदा विदेशी लोग  ले  जायेंगे . एक सर्वे के अनुसार वाल्मार्ट, टेस्को और करेफ़ौर का एक औसत स्टोर 11,200 लोगों को बेरोजगार करता है और उसे 285 लोगों को रोजगार देकर प्रतिस्थापित करता है .
      मनमोहन सिंह और यू पी ए सरकार ने दिनांक 1.10.2012  से भारत में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश को अध्यादेश द्वारा लागू करके छोटे दूकानदारों और व्यापारियों को बेरोजगार करना शुरू कर दिया है .विदेशी ईस्ट- इंडिया कंपनी ने व्यापार करते करते भारतवर्ष को दो सौ साल तक राजनीतिक गुलाम बनाया.  आज फिर से इतिहास दोहराया जा रहा है और पचास से अधिक  .विदेशी कंपनीयां देश को पहले  आर्थिक  रूप से और फिर राजनौतिक  हस्तक्षेप  कर गुलाम बनाने आ रही हैं .  

Pandit Deendayal Upadhyaya and his Philosophy for the Indian Nation


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Ram's name and its importance in Indian Culture

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Ram’s name is associated with religious harmony, self-sacrifice and dedication
                                                                                                    
 By  V.K.Singh

            I am deeply hurt by the recent propaganda carried out by the political parties; to make lord Rams name Communal. The name Ram is associated with religious harmony, self-sacrifice and dedication. Ram and Rama Rajya is a part of Indian culture, well imbued and engraved in the minds of Indian masses. Lord Ram’s name was and is associated with Allah, Rab, and the universal religion. Mahatma Gandhi, Saint Kabir and Rahim have all sung and praised Lord Ram’s contribution to the nation in its culture and governance. Rama Rajya was and is considered amongst general mass as the benchmark of good governance in India.
            However most political parties who indulge in corruption, money grabbing, politics of opportunism and vote bank, have repeatedly being trying to malign, asperse and vilify the name of Ram.  Maryada Purshottama Ram was and is a symbol of a Kings virtuous, ethical, self sacrificing and upright behaviour in India, and Ram Rajaya and its governing principles are a part of our culture which every Indian irrespective of caste, creed or religion associate themselves. Indian masses want and desire their leaders to follow and pursue the principle of Ram Rajya which is the scale of good-governance for the people of India. Mahatma Gandhi the father of this nation, in his evening public assembly used to pray and beseech the masses with the prayer: - “ Raghupatee Raagahava Raja Ram--------.” He used to implore the people of India with this prayer and reminded them of their culture where Ram’s name was being prayed with Allah and Eeshwar by Saints and Sufi’s .
The Chisti silsilah which has the largest number of followers today was introduced in India by Shakh Muinuddin Sijzi. The Chishti mystics were believers in pantheistic monism wahdat-ul-wajud, unity of being, which had its earliest exposition in the Upanishads of the Hindu. The Chishti saints, taught equality of all men, the essential unity of all religions, and freedom from all religious prejudices, exhorted to develop river like generosity, sun-like affection, were opposed to any discrimination between Hindu and Muslim in matter of Government and taught earth like hospitality. Most Chisti saints belonged to the liberal thought of school, and was influenced by Aryans thought.  Medieval India saw the rise of Bhakti Movement in India, which gave birth to many mystic saints and sufi’s who devoted their lives in search of god. The notable followers of this school of thought were Raidasa the cobbler, Kabir the weaver, Dhanna the Jat farmer, Sena the Barber, Pipa the Rajput, Ramadasa, Jnanadeva, and Caitanya Mahaprabhu. Muslims and Hindu saints, Sufi’s and poets sang the praises of “Radha-Krishna”, Ram or of “Kali”, Allah, Rab without having any interference from their community.
In Europe and America , people pray and are devoted to Ram and the Universal religion associated with its name. But in India the self-preoccupation believes & narcissist behaviour of some politician and a section of the society, have brought disrepute to this pious name. Some political parties due to their solipsism behaviour have even tried to deny the mythological believe and religious sentiments attached with lord Ram’s name. What a shame for the nation and its people!
  

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राजा राम भारतीय समाज के जीवन आदर्श

Rams name and its importance in Indian culture

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राजा राम भारतीय समाज के जीवन आदर्श 


मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राजा राम भारतीय समाज के जीवन आदर्श हैं.  राम जी का व्यवहार मर्यादा  से परिपूर्ण और चरित्र पुरुषों में सर्वोत्तम था .  रामराज्य से सुशासन की प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं उसकी महत्ता का बोध होता है . रामराज्य वह बैरोमीटर (पैमाना ) है जिससे भारतवर्ष की जनता किसी शासक के शासन का माप करती है। राम के नाममात्र से ही धर्मनिरपेक्षता , सदाचारी एवं त्यागमय जीवन , श्रद्धा , राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति जागृत होती है . राष्ट्रपिता महात्मा गांधी , संत कबीर , रहीम इत्यादि कई महापुरुष मौलवी , संत भी ऐसा विचार रखते थे . राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपनी सर्वधर्म सभाओं मे हमेशा एक प्रथना गाया करते थे –“ रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम” --. उन्होने जनता से राम के नाम को ईश्वर अल्लाह दोनों के नाम से जोड़ कर देखने की विनती की थी . भारतवर्ष मे फिर से रामराज्य आए , ऐसी कामना वे हमेशा करते रहे . भारतवर्ष मे रामजी के आदर्श दर्शन एवं त्यागमय जीवन जन जन मे बैठा है , जिसे चाहकर भी कोई राजनैतिक पार्टी मिटा नहीं सकती .  वे हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं.  
   आज भगवान राम के प्रति राजनीतिज्ञों का  विचार सुनकर बड़ा दुखः एवं खेद होता है, जिन्होने उनके नाम को ही सांप्रदायिक बना दिया है। भगवान राम भारतीय समाज  के जीवन आदर्श हैं, तथा रामराज्य से सुशासन की प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं उसकी महत्ता का बोध होता है। रामराज्य वह बैरोमीटर है जिससे भारतवर्ष की जनता किसी शासक के शासन का माप करती है। राम का नाम मात्र से ही धर्म-निरपेक्षता, सदाचारी एवं त्यागमय जीवन, श्रद्धा, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति जागृत होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी , संत कबीर , रहीम इत्यादि कई महापुरुष, मौलवी , संत भी ऐसा विचार रखते थे । भारतीय एकता,सहिष्णुता ,वैचारिक व्यापकता एवं  इसकी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता  मे आस्था रखने वाली जनता ने हमेशा राम के नाम को ईश्वर, अल्ला और रब के नाम से जोड़कर देखा है.
  
      भारतवर्ष के मुसलमानो में चिस्ती सिलसिला को मानने एवं आस्था रखने वाले सबसे ज्यादा हैं। निजामुद्दीन (1325 ई॰) के निजामुद्दीन प्रषाखा को पूरे भारतवर्ष के मुसलमानों के बीच शीर्ष स्थान मिला है। चिस्ती सिलसिला सर्वधर्मी, सत् (ब्रह्म), ब्रह्मदत-उल-वजूद, जीवों में समानता, जिसकी सारभूत व्याख्या हिन्दुओं के उपनिषद से ली गई थी, के मानने वाले थे। चिस्ती संत ज्यादातर उदारवादी विचारधारा के थे तथा आर्यों के विचारों से प्रभावित थे। चिस्तियों ने नदी के समान उदारता, सूर्य के तरह स्नेह, मनुष्यों के बीच समानता, सभी धर्मों के बीच एकता और धार्मिक पक्षपात एवं कट्टरता से आजादी की हिमायत की थी। मध्यकालीन युग में भारतवर्ष की जनता ने भक्ति विचारधारा को अपनाया। मुसलमान जनता, मौलवी, एवं कवि राधा, राम, कृष्ण या काली माँ की स्तुति सार्वजनिक  स्थलो पर बिना किसी रोक-टोक के करते थे। इस विचारधारा के ज्ञानी संतों एवं मौलवी मेेें रामदास चमार, कबीर बुनकर, घन्ना जाट, सेना नाई, पीपा राजपूत , रामदास और चैतन्य महाप्रभु के नाम प्रमुख है।
       विश्व में सर्वत्र राम का नाम एक सार्वलौकिक धर्म, धर्म-निरपेक्ष व्यक्तित्व के रुप में जाना जाता है।  आज कुछ राजनैतिक पार्टियॉं एवं उसके नेता जो भ्रष्ट व्यवहार एवं आचार से लिप्त हैं , निकृष्ट स्वार्थ एवं अहं के वशीभूत होकर तुष्टीकरण की नीति के तहत राष्ट्र में साम्प्रदायिकता भड़काते हुए अपनी वोट बैंक की स्वार्थलोलुप राजनीति को सार्थक कर रहे हैं। ऐसे निष्ठाहीन असमर्थ राजनेता राम के धर्म-निरपेक्ष, श्रेष्ठ एवं त्यागमय जीवनको बदनाम एवं कलंकित करने पर तुले हुए हैं।

आज ऐसे राजनीतिज्ञ  भारतीय पुराण एवं इतिहास में वर्णित  रामायण के घटनाक्रम कोे नकार ही नहीं उनमें लिखे तथ्यों को अप्रमाणिक एवं अविश्वसनीय बनाने का भी अथक प्रयास  कर रहे हैं। इससे ज्यादा राष्ट्रीय शर्म की  बात और क्या हो सकती है।

लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय व्यवसाय प्रकोष्ठ के कार्यकरणी सदस्य हैं और उन्हे email vksinghbjp@gmail.com और vksinghbjp@rediff.com पे संपर्क कर सकते हैं .   


Cultural Nationalism and its Role in Development of a Country in Hindi

राष्ट्र के विकास में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भूमिका

राष्ट्र  समान्यतः राज्य या देश से समझा जाता है . राष्ट्र का एक शाश्वत अथवा जीवंत अर्थ है “ एक राज्य में बसने वाले समस्त जन समूह ”. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी शाश्वत अर्थ को दर्शाता है . राष्ट्रवाद राष्ट्र हितों के प्रति समर्पित विचार है , जो एकता, महत्ता और कल्याण का समर्थक है , समस्त भारतीय समुदाय को समता एवं समानता के सिद्धान्तों पर एकीकरण करने का एक सतत् प्रयास है . राष्ट्रवाद समस्त नागरिकों के प्रति समर्पित विचार है , जिसमें सवर्ण, दलित , पिछड़े, हिन्दू मुस्लिम , सिख, ईसाई  सब सम्मालित हैं .नागरिकों को एकता के सूत्र में बॉधने एवं एक दूसरे के प्रति सच्ची श्रद्धा – समर्पण ही राष्ट्रवाद है ।  
राष्ट्रवाद का सीधा संबंध विकास से है, जो किसी राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के विकास से परिलक्षित होता है . विश्व के आठ बड़े विकसित देशों के समूह जी8 का विचार करें, तो इसमें दो ऐसी आर्थिक शक्तियाँ हैं , जिनको भारतवर्ष के साथ ही लगभग स्वतन्त्रता मिली ( तानाशाहों से ). जापान और जर्मनी ये दो देश द्वितीय विश्वयुद्ध मे बुरी तरह तबाह हो गए थे . काम करने वाले स्वस्थ लोग काम ही बचे थे , आर्थिक एवं राजनैतिक दबाव से ग्रसित थे तथा कर्ज के बोझ से दबे हुए थे .इन राष्ट्रो मे एक समानता थी , इन प्रदेशों की जनता मे राष्ट्रवाद की भावना कूट कूट  कर भरी हुई थी . मैं जापान का उदाहरण  आपके समक्ष रखना चाहूँगा. सांस्कृतिक दृष्टिकोण से जापान और भारत में काफी समानतायें हैं तथा जापान ने पौराणिक काल में हिन्दू जीवनदर्शन से बहुत सारी बातें ग्रहण की  हैं . आजादी के वक्त, जापान की प्रति किलोमीटर जनसंख्या भारतवर्ष से लगभग तिगुनी थी . प्राकृतिक, आर्थिक, मानव एवं भौतिक सम्पदा और संसाधनों मे वे भारतवर्ष की तुलना में काफी कम, ताकतवर थे. दोनों देश विश्व से समक्ष आर्थिक शक्ति बन कर उभरें हैं . जापानी राष्ट्रवाद का सजग उढाहरण वहाँ के श्रमिकों एवं मजदूर वर्ग के असंतोष व्यक्त करने के तरीके से उजागर होता है . जापानी लोग कभी हड़ताल कर अपने कर्मस्थल मे ताला नहीं लागते , परंतु वे काला फीता बांधकर विरोध प्रकट करते हैं . मांग पूरी होने पर वे अपने उच्च अधिकारियों से बातचीत करना बंद कर देने हैं, इससे बात बने तो वे कारखानों मे दुगुना तिगुना उत्पादन करने लगते हैं. यहाँ यह बताना आवश्यक है की उत्पादन दुगुना बढ्ने से माल का उत्पादन निम्न स्तर का होता है, कारखानो की चलपुंजी एवं कलपुर्ज़ों का तेजी से ह्रास होता है और बिकवाली पर प्रतिकूल असर पड़ता है और मिलमालिकों की मुश्किल कई गुना बढ़ जाती है. एक मजबूत और उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए यह परम आवश्यक है कि इसके नागरिकों में एकता और सद्- भावना हो जिससे उन्हें अपनी मातृभूमि से आत्मिक प्रेम और लगाव की भावना उत्पन्न हो , जो जापानियों के बीच मौजूद है .
राष्ट्रवाद का सिद्धांत किसी भी वर्ग विशेष की तुष्टीकरण के विरूद्ध है , तथा पूरे राष्ट्र में एक कानून और समान नागरिक संहिता की वकालत करती है.
संस्कृति से किसी व्यक्ति , वर्ग , राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन ,रुचि , आचार – विचार, कला-कौशल और सभ्यता का सूचक होता है पर विचार होता है  .  दो शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है . भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गज़ट) इतिहास व संस्कृति संस्करण मे यह स्पष्ट वर्णन है की हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म एक ही शब्द हैं तथा यह भारत के संस्कृति और सभ्यता का सूचक है .

  किसी भी कौम की संस्कृति का हम विचार करें तो यह विशेष रूप से उस समुदाय के जन्म- मरण , शादी-विवाह और त्यौहारों के उत्सव एवं रीति-रिवाजों  मे झलकता है . अगर हम भारतीय मूल ए हिन्दू मुसलमान और ईसाईयों की संस्कृति की बात करें तो धार्मिक रीति-रिवाजों को छोड़ इन सारे खुशी के मौकों पर साथ  को छोड़ इन सारे खुशी के मौकों पर साथ- साथ रहते-रहते प्रायः  सबने एक दूसरे के बहुत सारे  रीति रिवाज , सभ्यता , कार्य – संस्कृति  और तौर तरीकों  को ग्रहण किया है तथा उसे अपने व्यवहार और जीवनशैली मे सम्मलित किया . यह इन सभी धर्मो मे समान है जो की अन्य देशों की संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है . वास्तव मे यही धर्मनिरपेक्ष हिन्दू हिन्दू समाज की सभ्यता की तस्वीर है और इसे देश विदेश में  हिन्दुत्व या हिंदुस्तानी सभ्यता या संस्कृति के नाम से जाना जाता है . यही कारण है की भारतीय मुला के मुसलमान और ईसाई सम्प्रदाय अपने को अन्य देशो के भाइयों से अपने को बिल्कुल अलग और भिन्न पाते हैं .

  

आज गैर –भारतीयता को सेकुलरवाद और राजनीतिक सफलता का पैमाना माना जाता है . यहाँ राष्ट्रीयता की विचारधारा को हलके ढंग से लेते हुए हिंदुत्वमूलक सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा जो वास्तव में भारतीय सनातनी परिकल्पना का आधार है , को ही संदेह की दृष्टी से देखा जाता है .  आज हम सभी नागरिकों एवं जनप्रतिनिधियों का यह नैतिक ,सामाजिक एवं मौलिक कर्त्तव्य है कि हम आपसी भेदभाव को भुलाकर भारतवर्ष में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति जागृत करने का सामूहिक प्रयास करें . इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जागृति से राष्ट्र में शांति एवं व्यवस्था कायम होगी , जिससे राष्ट्र को एक आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित किया जा सकेगा . 


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