प. दीनदयाल उपाध्याय जी और भारतीय राष्ट्रवाद
विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के
स्वामी , प. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ 52 वर्ष
की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय
के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी. उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय ( आज का प
दीनदयाल उपाध्याय ) स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया. भारतीय राजनीतिक क्षितिज के
इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में
सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार
एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया. अनाकर्षक
व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्चकोटि के दार्शनिक थे।किसी प्रकार भौतिक
माया-मोह उनको छू तक नहीं सका. वे न देश के प्रधानमंत्री थे, न राष्ट्रपति फिर भी दिल्ली में उनके पार्थिव शरीर को अपने अंतिम प्रणाम
करने पांच लाख से भी अधिक जनता उमड़ पड़ी थी. तेरहवीं के दिन प्रयाग में
अस्थि-विसर्जन के समय दो लाख से अधिक लोग अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने को
एकत्रित हुए थे.
“भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है. उनकी जीवन प्रणाली, कला , साहित्य ,दर्शन सब भारतीय संस्कृति है. इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है. इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा”
राष्ट्र समान्यतः राज्य या देश से समझा जाता है . राष्ट्र का एक शाश्वत अथवा जीवंत अर्थ है “ एक राज्य में बसने वाले समस्त जन समूह जो एक समान संस्कृति से बंधे हों ”. राष्ट्रवाद की तात्कालिक युग में यही शाश्वत परिभाषा है . इसका सजग उदाहरण इज़राइल है जो यहूदियों ( बंजारों ) का एक ऐसा समूह था जिसके पास कोई भूमि नहीं थी . द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने यहूदियों को बसने के लिए उनके मूल मातृभूमि जेरूसलम वापस दिला दिया . इतिहास गवाह है की ईसाई और इस्लाम धर्म की शुरुआत से पहले यह शहर प्राचीन यहूदियों की राजधानी हुआ करती थी जिसे जबरन धर्म परिवर्तन के कारण यहूदियों को छोड़ना पड़ा . यहीं यहूदियों का परमपवित्र सोलोमन मन्दिर हुआ करता था, जिसे रोमनों ने नष्ट कर दिया था. ये शहर ईसा मसीह की कर्मभूमि रहा है. यहूदियों ने अपनी मातृभूमि को छोड़ा परन्तु अपनी सस्कृति नहीं छोड़ी इसलिए उनकी राष्ट्रीयता जीवित और अक्षुण रही .
संस्कृति से किसी व्यक्ति , वर्ग , राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन ,रुचि , आचार – विचार, कला-कौशल और सभ्यता का सूचक होता है पर विचार होता है . दो शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है . भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गज़ट) इतिहास व संस्कृति संस्करण मे यह स्पष्ट वर्णन है की हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म एक ही शब्द हैं तथा यह भारत के संस्कृति और सभ्यता का सूचक है .1995 के अपने एक आदेश से माननीय उच्चतम न्यायालय ने हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म को भारत वासियों की जीवन जीने की शैली के रूप मे परिभाषित किया है .
"संघे शक्ति
कलियुगे” अर्थात कलियुग में एकता ही शक्ति है हमारी भारतीय संस्कृति से ही निकला
एक दर्शन है . वसुघैव कुटुम्बकम्’ हमारी
संस्कृति से प्रचलित दूसरा प्रमुख दर्शन है. इसके अनुसार सारा विश्व हमारा कुटुंब है .
इसलिए भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है.
राष्ट्रवाद का सीधा संबंध विकास से है, जो किसी
राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के विकास से परिलक्षित होता है . विश्व के
आठ बड़े विकसित देशों के समूह जी– 8 का विचार करें, तो इसमें दो ऐसी आर्थिक
शक्तियाँ हैं , जिनको भारतवर्ष के साथ ही लगभग
स्वतन्त्रता मिली तानाशाहों से जापान और जर्मनी ये दो देश द्वितीय विश्वयुद्ध मे
बुरी तरह तबाह हो गए थे. काम करने वाले स्वस्थ लोग काम ही बचे थे , आर्थिक एवं राजनैतिक दबाव
से ग्रसित थे तथा कर्ज के बोझ से दबे हुए थे . इन राष्ट्रो मे एक समानता थी , इन
प्रदेशों की जनता मे राष्ट्रवाद की भावना कूट –कूट कर
भरी हुई थी . आज ये देश विकसित हैं .
मैं जापान का उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहूँगा . सांस्कृतिक
दृष्टिकोण से जापान और भारतवर्ष में काफी समानताएं हैं तथा जापान नें पौराणिक काल
में हिन्दू जीवनदर्शन से बहुत सारी बातें ग्रहण की है . आजादी के वक्त, जापान कीं प्रति किलो मीटर जनसंख्या भारतवर्ष से लगभग
दूगनी थी। प्राकृतिक, आर्थिक एवं भौतिक संपदा औरं संसाधनों
में वे भारतवर्ष की तुलना में काफी कम ताकतवर थे. दोनों ही देश आज विश्व के समक्ष
आर्थिक शक्ति बन कर उभरें है .जापानी राष्ट्रवाद का सजग उदाहरण वहां के कार्मिकों
एवं मजदूर वर्ग के असंतोष व्यक्त करने के तरीके से उजागर होता है. जापानी लोग कभी
हड़ताल कर अपने कर्मस्थली को ताला नहीं लगवाते परन्तु वे काला फीता बांध कर विरोध
प्रकट करते हैं . मांग पूरी न होने पर वे अपने उच्च अधिकारियों से बातचीत बंद कर
देतें हैं, इससे भी बात न बने तो वे अपने कारखानों मे दुगुना
तिगुना उत्पाद करने लगते हैं. यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उत्पादन दुगनी प्रतिशत
में बढ़ने से माल का उत्पादन निम्न स्तर का होता है, कारखानों
की चलपूंजी एवं कलपूर्जो का तेजी से ह्रास होता है और बिकवाली पर प्रतिकुल असर
पड़ता है और मिल मालिकों कि मुश्किलें कई गुना बढ़ जाती हैं . एक मजबूत एवं उन्नत
राष्ट्र के निर्माण के लिए यह परम-आवश्यक है कि इसके नागरिकों में एकता और
सद्भावना हो जिससे उन्हें अपनी मातृभूमि से आत्मिक प्रेम और लगाव की भावना उत्पन्न
हो, जो जापानियों के बीच मौजूद है.