आज के हालत मे महिलाओं और लड़कियो पर हो रहे दुष्कर्म पर समाज मे हर तरफ से आवाज उठ रही है जो एक अच्छा संकेत है . परंतु इसके
लिए कोई एक वर्ग ज़िम्मेवार नहीं , और हमे इस बारे हम सबों को इस पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है . विगत
कुछ वर्षो मे ऐसा क्या हुआ है जो पूरी भारतीय संस्कृति ही बदल गई है .
ऐसा क्या है जो समाज हो अपने पुरखो से शताब्दियों से दिये संस्कारों को भूलाने पर मजबूर कर रहा है . हम जबतक इन बातों का पूर्ण
विश्लेषण नहीं कर लेते तबतक किसी वर्ग विशेष
पर उंगली उठाना उचित नहीं होगा . मैं अपने अध्य्यन
को तात्कालिक समाज की बुराईया और आजादी के समय से क्या परिवर्तन आए उस तक ले जाकर विश्लेषण करना चाहूँगा.
आज हम पुलिस के असंवेदनशील होने पर आवाज उठा रहे हैं
,
परंतु क्या हम खुद संवेदनशील हैं ? आए
दिन सड़क पर कोई जख्मी हालत मे पड़ा होता है हम लोगों मे से कितने लोग उसकी मदद को सामने आते हैं. रोज कोई डॉक्टर मरीज के इलाज करने के बहाने उसका शोषण करता
है ,
हम कितने लोगों ने इस बात पे आवाज उठाई है . सरकारी कर्मचारी आए दिन आम जनता
को झिड़कते और प्रताड़ित करते रहते हैं जनता के सेवकों ने जनता को ही अपना सेवक समझना शुरू
कर दिया है . स्कूल और कॉलेजों मे शिक्षा के नाम पर आए दिन आम आवाम का दोहन हो रहा
है . आए दिन सास को बहू को जलाने की बात आती है महिलायेँ ही अपने वर्ग की दुश्मन बन
गई हैं क्या कोई इस बात पे आवाज उठाता है.
सरकारी पैसे का रोज दुरुपयोग हो रहा है यह हमारा पैसा है आप और हम कितने लोग
इस बात को समझते हैं . जहां देखो वहाँ अनाचार और अनैतिकता का बोलबाला है .
हम सभी इन बातों की ज़िम्मेदारी अपने नेताओं या प्रशासन
पर डाल देते हैं. परंतु जनता जैसी होती है नेता भी वैसे ही होते हैं . अगर हमे इसे
बदलना है तो खुद आगे आना पड़ेगा . लोकतन्त्र की एक सरल परिभाषा है ,
“जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन”. हम नेताओं पर सारा दोष नहीं डाल सकते
इसके लिए हम सभी खुद भी ज़िम्मेवार हैं
किसी भी राष्ट्र के जीवन को देखने के लिए एक वातायन होता
है, साहित्य जो उस राष्ट्र
के धर्म , कला,
संस्कृति और मानव मूल्यों का भी सृजक होता है . हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन पध्दति को नैतिक ,
व्यावहारिक और उच्च दार्शनिक सिद्धांतों पर आधारित किया था और उसी के अनुसार वेद ,
ग्रंथों और उपनिषदों ( असंख्य किन्तु मान्य केवल 11)
की रचना की थी . भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था कानून से नहीं बल्कि प्रचलित
नियमों जिसे धर्म के नाम से जाना जाता था , के
द्वारा होता था . धर्म ही वो आधार था जो समाज को संजुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गो मे समंजस्य एवं एकता के लिए
कर्तव्य – संहिता का निर्धारण करता था . उपनिवेशिक दासता के पूर्व यह संकृति और
सभ्यता कायम रही.
परंतु दासता आते की विदेशी कानून और बाजारीकरण संस्कृति का प्रचलन
प्रारंभ हुआ . उच्च वर्ग पर इसका प्रभाव पड़ा , परंतु शिक्षित और धनाढ्य होने के कारण ये बुराईया सामने नहीं आई .
विदेशी चीज और विदेशी संस्कृति ने हमारे अपने
संस्कृति पर प्रभाव जमाना शुरू कर दिया है और बाजारीकरण की नीतियो ने हमे ग्रसीत कर लिया है .
हम आज विदेश और विदेशी नीतियों के गुलाम बनते जा रहें हैं और हमने फिर से पहले की तरह आर्थिक रूप से और फिर राजनौतिक हस्तक्षेप
कर गुलाम बनने की तैयारी कर ली है . विदेशी पूंजी के निवेश के नाम पर हम अपने
ही उद्योग और धंधो को बंद करने पर लगे हुए हैं.
भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम के
संघर्ष मे स्वदेशी विचारधारा , राष्ट्र के सांस्कृतिक गौरव और उसकी भावना की अहम भूमिका रही है . स्वाधिनता का अर्थ राष्ट्रपिता के निगाह मे राष्ट्र के सामाजिक जीवन जो प्रशासनिक
व्यवस्था , आर्थिक
विकास और तात्कालिक धार्मिक झुकाव को दर्शाता है , सभी को हिंदुस्तानी विचारों और जीवन के सर्वांगीण विकास
से सुशोभित करना था . इंग्लैंड मे पढे और दक्षिण
अफ्रीका मे कानून और राजनीति मे कार्यरत्त राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने राष्ट्र के स्वतन्त्रता सग्राम
के संघर्ष मे आम आवाम का परिधान स्वदेशी खादी
की धोती को अपनाया.
संविधान का साहित्यों मे प्रथम स्थान है . संविधान
केवल एक लिखित दस्तावेज़ नहीं , वह राष्ट्र के सांस्कृतिक
,
राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों का मार्गदर्शक
भी होता है . स्वदेशी आंदोलन से मिली स्वतन्त्रता के बाद निर्मित भारतीय संविधान के
ज़्यादातर तत्व विदेशी स्त्रोतों से है . बहुत
कम बातें ए॓सी हैं जो भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हैं और जिसे संविधान मे
शामिल किया गया है . जबकि यह एक ए॓तिहासिक सच्चाई है की विश्व की सबसे पुरानी गणराज्य
बिहार के लिच्छवि मे कार्यरत थी . संविधान की संरचना का अधिकतर अंश औपोनिवेशिक दासता
के दिनो मे पारित भारत सरकार के अधिनियम 1935
से बना है , जिसे दुर्भाग्यवश निरंतरता और स्थिरता के आधार पर अपनाना जरूरी समझा गया
. इससे सरकारी कर्मचारियों को संविधान के आधार पर कानून का संरक्षण प्राप्त हो
गया है.
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के धारा 64
के आधार पर साधारण नागरिक और सरकारी कर्मचारियों मे भेद भाव बरता गया है . इसलिए पुलिस
प्रशासन जो औपोनिवेशिक दासता के समय आम जनता
पर शासन करने को बनाई गई थी आज भी उसका स्वरूप
वही है. हम आज भी तंत्र के आगे गुलाम हैं . गणतन्त्र से गण गायब हैं जनतंत्र से जन
गायब है और तंत्र की तानाशाही है . गण और जन की भूमिका केवल मत देने तक रह गयी है,
आज भी भारतीय गणराज्य की सफलता भारतीय एकता और संप्रभुता के समक्ष चुनौतियाँ
अपनी जटिलता के साथ पूरी तरह मौजूद हैं .
एक नयी व्यवस्था और संविधान जो भारतीय संस्कृति
पर निर्मित हो , वेदों और धर्मशास्त्र ,
विधान का राज्य , स्वतन्त्रता ,
मानवाधिकार , लोकतान्त्रिक मूल्यों से
जो सुसज्जित हो आज के भारत की अवश्यकता है .