महिलायों पर अत्याचार और उसके समाधान
भारतीय राष्ट्र का निर्माण
भारतीय राष्ट्र का शिलान्यास मानव सभ्यता की तरह सहस्त्राब्दियों पूर्व
सुदूर अतीत में हो चुका था। भारतीय संस्कृति मानव सभ्यता के साथ-साथ एक नदी की तरह
विकास के पथ पर आगे बढ़ती आयी है। हिन्दू धर्म तथा हिन्दूस्तानी सभ्यता जिसे
हिन्दूत्व के नाम से भी जाना जाता है , भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का अभिन्न अंग है, जिसको परिभाषित
करने के लिए भारतीय संस्कृति, सभ्यता, भारत स्थित
मनुष्यों की वंशावली, उनका उद्गम, भिन्न वर्ग, प्रखण्ड, भाषा एवं धर्म का
सम्यक अध्ययन एवं विवेचना आवश्यक है। यद्यपि इसके ऊपर समय-समय पर अनेक बाधाएँ
उपस्थित हुईं, परन्तु सभ्यता की
प्रगति के मार्ग कभी शुष्क नहीं हुए। इस पुस्तक के माध्यम से पूर्वजों की उन महान
उपलब्धियों, माध्यमों तथा
व्यवस्थाओं को भी व्याख्यान, विचार एवं विवेचना के लिए प्रस्तूत किया
जा रहा है जिसके कारण भारत को सोने की चिड़ियां के रूप में अलंकृत किया जाता
है।
भारतीय सभ्यता
विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। हिन्दू ऐतिहासिक एवं पौराणिक
ग्रन्थों का सम्यक् अध्ययन करें, तो यह विदित होता है कि यह सबसे
प्राचीन है। ज्ञानपिपासु, उत्साही
अध्ययनकर्ताओं के लिए ऐतिहासिक घटनाक्रम, उसके लेखन का आधार, साक्ष्य, प्रमाण एवं अन्य
बिन्दुओं जिसका इतिहासकारों ने इतिहास लिखने के क्रम में काफी विचार एवं विवेचना
की है, भी आवश्यक है।
इतिहासकारों ने भारतीय प्राचीन इतिहास ग्रन्थान्तरण में ऐसी बहुत सी बातों एवं
तथ्यों को प्रस्तुत किया है जो परस्पर विरोधी, त्रुुटिपूर्ण, अतार्किक एवं
अक्रमिक प्रतीत होते है। यह एक अत्यन्त ही आश्चर्यजनक सत्य है कि भारतीय इतिहास की
रचना कुछ विदेशी मूल के ऐसे इतिहासकारों ने की, जिनकी अपनी कोई प्राचीन सभ्यता एवं इतिहास नहीं है। यहाँ इन सारे तथ्यों
को सूक्ष्म अध्ययन एवं विवेचना के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।
भारतीय मूल के निवासियों की वंशावली, मानव समाज की उत्पत्ति की तरह स्पष्ट नहीं है। हमारे पूर्वजों को बहुआयामी, भ्रमात्मक वंशावली एवं संस्कृति धरोहर के तौर पर मिली । उत्खनन एवं खोज से इस सर्वमान्य सच्चाई का पता चला है कि, सभ्य संस्कृतियां या व्यवस्थित राजनैतिक एवं सामाजिक सभ्यता सर्वप्रथम एक सीमित भौगोलिक परिधि में बसी हुई थी। इसके पश्चिम में मिस्र, पूर्व में सिन्धु घाटी, उत्तर में एन्टोलिया (ऐशिया माईनर) एवं दक्षिण में सूमेरिया (इराक, ईरान) स्थित था। सभ्य समाज उस सीमित परिधि से निकलकर भूमध्य सागर एवं पश्चिमी द्वीपों में पहुँचा। पृथ्वी पर पहले नगर बहुत छोटे-छोटे रूप में मन्दिरों के आस-पास बसे हुए थे। बहुत जल्दी उनमें से कुछ मन्दिरों ने उन्नति कर ली एवं उन मन्दिरों के मुख्य पुजारी नगर प्रधान कहे जाने लगे। इसके बाद सभ्यता के विकास क्रम में कुछ मन्दिरों के मुख्य पुजारी राज्य के प्रथम राजा कहलाने लगे।
मिस्रवासियों की
वंशावली एक विवाद का विषय है। कुछ लोग उन्हें ऐसे विजेताओ का वंशज मानते हैं जो
श्रेष्ठ धातुशास्त्र के ज्ञाता थे, तथा उत्तम हथियारों से लैस होकर उन्होंने नील घाटी के आदिवासियों पर आसानी से विजय प्राप्त की। मेसोपोटामिया ;मिस्रद्ध के दक्षिण
पश्चिम में यूफरेट्स और टिगरीस की निचली घाटियों में सूमेरिया स्थित है। हम ये
नहीं जानते कि सुमेरियन कौन थेे । कुछ लोग उन्हें आधुनिक तूरानियों से और
दूसरे उन्हें भारतीय द्रविड़ों से जोड़ते हैं। इन सभी प्राचीन सभ्यताओं की जीवन
पद्धति में हिन्दू सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव पाये गए हैं, जिसमें मन्दिर
निर्माण और पुरोहित सम्मिलित हैं। आर्यों द्वारा नामकृत सिन्धु नदी यूनानियों की
भाषा में इंद्स के नाम से तथा इस्लामी
भाषा में हिन्द नदी के नाम से जानी जाती थी, जिसके कारण भारत का नाम इण्डिया और हिन्दूस्तान पड़ा।
सिन्धु नदी के तटों
के दोनों किनारों परं स्थित घाटियाँ प्राचीन सभ्यता के विकास का स्थल बनीं, जो
इतिहासकारों के मतानुसार निर्विवाद रुप से
न केवल प्राचीन थीं बल्कि अनेक मामलों में सुमेर और इजिप्ट की कल्पित सभ्यताओं के
वनिस्वत श्रेष्ठ भी थीं। इस ऐतिहासिक नदी की पाँच सहायक नदियाँ तिब्बत में कैलास
पर्वत (जो शिव के निवास स्थल के रूप में जाना जाता है) से निकलकर हिमालय में अनेक
मीलों तक बहती हुई अरब सागर से मिलने के पूर्व कश्मीर और पंजाब को पार करती है।
प्राचीन सभ्यताओं के उत्खनन एवं खोज के क्रम में जिन सबसे पुरानी
सभ्यताओं का पता चला उनमें सुमेरिया (इराक एवं इरान) मिस्र तथा सिन्धु घाटी की
सभ्यता प्राचीनतम हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता सभी भव्य संस्कृतियों के उत्खनन के
क्रम में अंतिम खेाज है। इतिहास के पन्नों में सबसे विलम्ब से वर्णित सिन्धु घाटी
सभ्यता इन सभी भव्य सभ्यताओं में प्राचीन है। मेहरगढ़ और सिन्धुघाटी के तत्कालीन
अन्वेषण एवं खनन से तथा वहाँ के ढाँचों से प्राप्त कार्बन-14 नमूनों के
अनुसन्धान से यह पता चलता है कि वे 6000 से 7000 ईसापूर्व के हैं।
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि पहले के ढाँचे अवश्य ही उससे पूर्व सदी के होंगे।
ऐतिहासिक उत्खनन एवं शोध से यह पता लगता है कि रामापीथ्यूकस नामक प्रजाति
के प्राणी शिवालिक पहाड़ियों की घाटी में पाये जाते थे, जो हिमालय के
उत्तर-पश्चिम में स्थित है । यह जाति मानव विकास के क्रम में प्रथम जाति थी जो
लगभग 140 लाख साल पहले
पृथ्वी पर रहती थी। तत्कालीन अनुसंधान से यह स्पष्ट होता है कि आस्ट्रालोपिथस नामक
प्रजाति की तरह भारतवर्ष में 20 लाख साल पूर्व एक प्रजाति रहती थी। इस संदर्भ में बहुत कम अनुसन्धान हुए
हैं तथा मानव उत्पत्ति के विकास के क्रम में 120 लाख साल का फासला रह जाता है। भौगोलिक अध्ययन से यह विदित होता है कि
भारतीय उपमहाद्वीप पाँच सौ लाख साल पूर्व एक पृथक द्वीप था, जो एशिया महाद्वीप
से बाद में जुड़ गया।
हिमालय पर्वत
श्रृंखला एक कृत्रिम पर्वतीय श्रृंखला है, जिसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी से न होकर भारतीय उपमहाद्वीप से एशिया
महाद्वीप के प्राकृतिक मिलन से हुआ है। अगर हम संस्कृत की पौराणिक ग्रन्थों एवं
अपनी रीति रिवाजों पर विषय-विमर्श करें तो यह पायेंगे कि भारतीय उपमहाद्वीप को
ब्राह्मण एवम् संत, जंबूद्वीप के खण्ड
के नाम से पुकारतेे आ रहे हैं। हिन्दूओं के प्राचीन विश्व विवरण में भारतवर्ष वह
भूखण्ड है, जो मेरू पर्वत
(सोने की पहाडी़) के दक्षिण में स्थित है।
ऐतिहासिक
वर्णनानुसार 6000 ईसा पूर्व विश्व
में सबसे पुरानी महान सभ्यता मेहरगढ़, बलूचिस्तान में सिन्धु घाटी सभ्यता के रूप में पाषाण काल से विद्यमान थी।
इसी काल में प्रथम नगरीय सभ्यता के भी स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। इसी काल में
गाय-भैंस, भेड़-बकरी इत्यादि
को पालतू बनाया गया। सिन्धु घाटी में गेहूँ, कपास, जौ फल-फूल वाले
पेड़ों की खेती, बर्तन, मूंगा-मोती का माला
के रूप में प्रयोग 5000 ईसा पूर्व से
प्रारम्भ हुआ। कुम्हार का चाक, धातु-औजार, भट्ठी के पके हुए
बर्तन, उत्तम पॉलिस के
बर्तन एवं सूत कातने का चरखा, ताँबा तथा धातु को पिघलाने की कला एवं हीरे जवाहरात, रत्नों का प्रयोग 4000 साल ई॰पू॰ में
पाया गया।
इतिहास तथा भारतीय सरकारी प्रकाशन (गजट) के वर्णन के अनुसार एक नई प्रजाति जिसेे आर्य या सिन्ध आर्य के नाम से जाना जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप में आयी। इससे पूर्व सिन्धु घाटी या सैन्धव क्षेत्र सभ्यता बलूचिस्तान के नारपा, अमरी, एवं रूपर हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) एवं अफगानिस्तान में विकसित हुई और फली-फूली। कोई 2000 साल ई॰पू॰ यह प्रजाति अपने मूल मातृभूमि से गमन कर पश्चिम दक्षिण एवं पूर्व की ओर देशान्तर हुए।यूरोप की तरफ गमन करने वाला आर्य अंग, यूनानी, रोम निवासी सेल्ट तथा ट्यूटोनिक निवासियों के पूर्वज थे। एक अंग अन्टोलिया के तरफ चली गई तथा महान हिट्टाइटिस साम्राज्य का गठन इन लोगों के एवं वहाँ के मूल निवासियों के समागम से हुआ। जो शाखा दक्षिण के तरफ गई, उनका मुकाबला पश्चिम एशिया की सभ्यता से हुआ। कसाइटिस, जिन्होंने बेवीलोनिया को जीता था, इन्हीं निवासियों के वंशज थे।
मैसूर राज्य के संगतकाल में विभिन्न भागों के उत्खनन से ऐसे प्रत्यक्ष
साक्ष्य मिले हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि इन भूखण्डों की जीवाणुविषयक परीक्षण से प्राप्त
नमूने काफी प्राचीन है। अनुमानतः पाषाण काल के पूर्व के हैं। ये सम्भवतः
इतिहासकारों द्वारा वर्णित प्रारम्भिक कृषिकाल के है।
पुरातत्व उत्खननकर्ताओं को एशिया माइनर स्थित भोगहज कोए के खनन में ऐसे साक्ष्य एवं शिलालेख प्राप्त हुए हैं जो 1400 ई॰पू॰ के हैं तथा जिनपर इन्द्र, वरूण और नतस्य आदि हिन्दू देवताओं के नाम खुदे हैं। इसी शताब्दी में मिस्र के तेल उल अमारा में मिट्टी की पटरियों और फन्नी के आकार के शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिनपर युवराज मित्तानी का नाम अंकित है। यह शिलालेख मेसोपोटामिया मिस्र के दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्य के सम्बन्ध में है तथा इसके नाम भारतीय मूल के है।
सुमेरिया की सभ्यता विश्व के प्राचीनतम् सभ्यताओं में अपना महत्वपूर्ण
स्थान रखती है। धार्मिक एवं पौराणिक दृष्टिकोण से हिन्दूस्तानी सभ्यता से इसकी
काफी समानताए हैं। भारतीय धार्मिक, दर्शनशास्त्र एवं संस्कृति ने सुमेरी सभ्यता के विकास में अपना प्रभाव
छोड़ा है , तथा इसका प्रभाव
ई॰पू॰ 3000 साल से इतिहास के
पन्नों पर दर्ज है। मध्यकालीन समय में खलीफाओं के प्रोत्साहन से कई विद्वानों नें
खगोलशास्त्र एवं आयुर्वेदशास्त्रों का अनुवाद पारसी भाषा में किया। अरबों ने
भारतवर्ष से अंक विद्या ग्रहण कर पूरे विश्व में प्रचारित किया। पौराणिक
वर्णनानुसार भगवान कृष्ण के पुत्र सांब ने मागा पुरोहितों को भारतवर्ष में विशुद्ध
सूर्य-पूजन हेतु ईरान से आमन्त्रित किया। ये शकलद्वीपी (पूर्व इरानी) ब्राह्मण
भारतवर्ष में ईसा के प्रथम दशक में आए थे। इनमें से बहुत सारे ब्राह्मणों को देश
के विभिन्न भागांें में बिहार की सीमा तक बसाया गया हैं। बिहार में छठ पूजा का
प्रचलन इस सूर्य वन्दना करने वाले धार्मिक सम्प्रदाय की देन है।
सिन्धु सभ्यता को
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की सभ्यता के नाम से भी पुकारा जाता है। सैन्धव सभ्यता का
विस्तार सतत हड़प्पा सभ्यता के रूप में पंजाब, सिन्ध एवं राजस्थान में फैला है। उत्खननकर्ताओं के अध्ययन एवं अनुसन्धान
से कालीभंग एवं आमरी आदि उन्नत सभ्यता का पता चलता है। कालीभंग सभ्यता सरस्वती नदी
तट पर बसी थी, जो आज राजस्थान में
घग्घर नदी के नाम से जानी जाती है। उत्खनन में प्राप्त पात्रों मे ,उत्कष्ट छः परतों
के चाक रचित पात्र मिले हैं, जिनकी संरचना ईरानी एवं बलूचिस्तानी पात्रों की तरह है। इन खनित पात्रों
के कार्बन-14 अनुसंधान एवं
अन्वेषण से कालीभंग आकृतियों की उम्र ई॰पू॰ 2245 , +/- 115 का पता लगा है। पुरातत्त्ववादियों को ये पात्र
हड़प्पा सभ्यता में प्राप्त कृतियों से ज्यादा उन्नत किस्म के लगते हैं। आमीरी
सभ्यता के पात्रों एवं बर्तनों का कार्बन-14 भी उन्हें ई॰पू॰ 2500 साल से पहले के दर्शाते हैं।
सिन्धु सभ्यता के कालक्रम निर्धारण में मेसोपोटामिया के उत्खनन में
प्राप्त सरगोनिड काल (2350 ई॰पू॰) का एक
महत्वपूर्ण स्थान है। इन्हीं वस्तुओं के विश्लेषण से सिन्धु सभ्यता का तिथि
निर्धारण सम्भव हुआ। इतिहास वर्णित वैदिक समय निर्धारण, मिस्र के सम्राट
हिटाईटीस एवं मित्तानी के राजा के बीच हुई सन्धि (1400-1500 ई॰पू॰) जिसमें वैदिक देवताओं के नाम अंकित है, से झूठा सिद्ध हो
जाता है। इससे पता चलता है कि इतिहासकारों की क्रमावली एवं लेखन में काफी
त्रुटियाँ है, तथा बहुत सारे
तथ्यों को जानबूझकर छुपाया गया है। विद्वानों का इस विषय पर भी वैचारिक मतभेद है, कि ये नाम दैविक
हैं, या ईरानी भाषा से
प्रभावित है। विद्वान एवं इतिहासकारों ने इस खौगोलिक तर्क को जिसमें ऋग्वेद की
रचना 4000 वर्ष ई॰पू॰ हुई है, यह कहकर नकार दिया
है कि यह काल्पनिक व असंगत तथ्यों पर आधारित है।
उम्मा मेसोपोटामिया में पाए गए कपास के गट्ठरों पर सिन्धु सभ्यता के छाप
मिलें हैं, जिनपर उर, लगश, सुसा, तेल, उसमर आदि नाम अंकित
है। उससे यह पता चलता है कि कुछ भारतीय मूल के व्यापारी मिस्र में भी उस काल में
रहते थे।
भारतीय सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा का विस्तार
एवं प्रसार प्राचीन काल में एशिया महाद्वीप के हर कोने में अंकित है। इसमें प्रमुख
रूप से चीन, थाइलैंड, मलाया, बर्मा, इन्डोनेशिया, जापान एवं जावा
सुमित्रा द्वीप की सभ्यता विचारणीय है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की छाप सुदूर
पूर्व, पश्चिम मेें तथा
मध्य एशिया में भी पाई गई है।
खोतन में एक हिन्दू राष्ट्र पाया
गया था। ऐसी मान्यता है कि उसे सम्राट अशोक के पुत्र ने स्थापित किया था। बौद्ध
धर्म का प्रचार खोतन राज्य में उसके स्थापना के लगभग एक शताब्दी बाद हुआ। खोतन में
संस्कृत एवं प्राकृत की शिक्षा दी जाती थी।
मध्य एशिया सारी प्राचीन संस्कृतियों का मिलन स्थल बन गई थी तथा वह चीन
तथा यूनान के बीच प्रमुख रेशमी व्यापारिक मार्ग के रूप में विकसित थी। सर स्टेल
स्टाईन द्वारा चीनी तुर्कीस्तान के नाम से जाने जाने वाले एशिया के सबसे भीतरी भाग
के उत्खनन एवं अन्वेषण में पुरातत्ववेत्ताओं
को कुछ ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो बिना शक यह सिद्ध करते हैं कि वहाँ पंजाबी एवं कश्मीरी मूल के निवासी
देशान्तर कर बसे हुए थे तथा उन्होंने तरीम के तराई के क्षेत्रों में बहुत सारे
नगरों की स्थापना की थी। भारतीय सभ्यता की पैठ वहाँ इतनी गहरी थी, कि सर स्टेन को यह
लगा कि वे पंजाब के किसी ग्राम में पहुँचे हुए है, जबकि वास्तव में वे पंजाब से 3220 किमी॰ दूर थे। इतिहास गवाह है कि भारतवासियों ने सत्ता का
राजनैतिक प्रयास नहीं किया लेकिन भारतीय संस्कृति इतनी विकसित एवं उन्नत थी कि
इसका स्वतः विस्तार एवं प्रसार दूर-सुदूर पश्चिम देशों तक फैल गया था।
यह एक विचित्र एवं अद्भुत सच्चाई है कि भारतीय पौराणिक इतिहास की संरचना
यूरोपीय देशों के इतिहासकारों ने किया, जिन्होंने खुद कभी अपनी सभ्यता के पौराणिक होने का दावा नहीं किया है।
ऐतिहासिक लेखन क्रम में इन इतिहासकारों ने बहुत से हिन्दूस्तानी घटनाक्रम, तारीख एवं तथ्य को
जानबूझकर नकार दिया। अंग्रेजों के भारतवर्ष में दीर्घकाल तक सत्ता पर आसीन रहने की
व्यूह रचना को ये ऐतिहासिक घटनाक्रम
प्रभावित करते थे। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वैदिक संरचना का 1500 ई॰पू॰ एवं महाभारत
का 900 ई॰पू॰ तिथि
निर्धारण करना है। अपने लिखे इतिहास के घटनाक्रम को, एक क्रम में पिरोने एवं सुसज्जित करने के अथक
प्रयास में उन्होंने भारतीय पुराण में लिखे घटनाक्रम को ही नहीं नकारा या नष्ट
किया बल्कि अपने जाने माने इतिहासकारों की लेखन को भी झूठा भी करार दिया।
अंग्रेजी इतिहासकारों ने इतिहास लिखते समय पुरातत्व विज्ञान, भूगोलशास्त्र, संस्कृति, धर्म, पाण्डुलिपि, शिलालेख विद्या और
विज्ञान को आधार बनाकर एक ऐसे पौराणिक इतिहास की संरचना की जो कई स्थानों पर
परस्पर विरोधी, अतार्किक एवं
त्रुटिपूर्ण है। इतिहास रचयिताओं ने भारतीय ग्रन्थों, पुराणों की समय
क्रमावली को जान बूझकर नकारा है, तथा उनमें लिखे तथ्यों को यह कहकर शामिल नहीं किया कि यह अप्रमाणिक एवं
अविश्वसनीय है। बहुत सारे तथ्य जो उनके लिखे इतिहास से मेल नहीं खाते थे उसे
अविचारणीय़ समझा गया। वर्तमान युग में उसपर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
डा॰ बी॰ सी॰ गुहा के कथनानुसार भारतीय जनसंख्या की संरचना 6 मूल जाति समूहों
में बँटा है। हब्सी, एस्टीक, तिब्बती, चीनी या मंगोलियन, द्रविड़, पश्चिमी
बलुचिस्तानी तथा सिन्धु आर्य। पुरातत्ववादियों ने सिन्धु घाटी खनन में दबे नरकंकाल
के अनुसन्धान से यह निष्कर्ष निकाला कि इस महान सभ्यता के मूल निवासी, द्रविड़, ऐलपाईन्स, ऑस्टीक, और मंगोलियन थे।
ऐतिहासिक वर्णनानुसार, ईरानी आर्य या
नौर्डिक आर्य, मध्य एशिया स्थित
एनटोलियो से भारतीय उपमहाद्वीप में आए। यही वह भारतीय समुदाय है, जिसकी 65 प्रतिशत आबादी और 74 प्रतिशत
भाषा-भाषी निवासी प्रमुख नदियों के किनारे, विशेष कर गंगा के
तट स्थित मैदानी भूमि में केन्द्रित है। मुख्य भारतीय आर्य भाषाएँ, जो भारतीय संविधान
के सिड्यूल/अनुसूची आठ (धारा 343 और 345) द्वारा मान्यता
प्राप्त हैं, वे पश्चिमी पंजाबी, सिन्धी, बिहारी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, आसामी, बंगाली, उड़िया, पहाड़ी, कश्मीरी और संस्कृत
हैं।
संस्कृत में आर्य शब्द का अर्थ ‘एक उत्तम परिवार’
है। ‘भारतीय सरकारी
राजपत्र (गजट)’ जो कि अंग्रेजों
द्वारा प्रकाशित ‘भारतीय इम्पीरियल
गजट’ का एक संशोधित
रूपान्तरण है के अनुसार जेन्ड भाषा में भी इसका यही अर्थ है। मानव समाज ने हमेशा अपने वंश का नामकरण अपनी
मातृ भाषा में ही किया है। इतिहास के पन्नों पर जेन्ड भाषा एवं संस्कृति के
विस्तार एवं प्रसार का वर्णन शायद हीं कहीं हो। इस संस्कृति कें अवशेष एवं व्यापक
प्रभाव संस्कृत भाषा या भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के विश्वव्यापी प्रसार के तरह, मानव समाज के
प्रगति या सर्वांगीण विकास के क्रम में कहीं अंकित नहीं है।
विश्व की प्राचीनतम् सभ्यता एवं संस्कृति के सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे साक्ष्य सामने आए हैं, जिनसे स्पष्ट है कि सांस्कृतिक, सामाजिक राजनैतिक संस्था का उद्गम, विकास, प्रसार एवं विस्तार हमेशा अपने मूल निवास या मातृभूमि से ही हुआ है। इतिहास के पन्नों में ऐसा कोई पूर्व दृष्टान्त या प्रमाण नहीं मिला हैं, जिसमें यह वर्णन हो कि एक सम्प्रदाय या वंश के लोग अपनी मातृभूमि से गमन कर विश्व के किसी अन्य हिस्से में बस गए हों, तथा वहाँ उन्होंने विश्व की सबसे विकसित एवं उन्नत सभ्यता का विकास किया हो। आर्य सभ्यता इस मामले में अपवाद है। यह आश्चर्य एवं विवाद का विषय है कि इतिहासकारों ने यह कैसे निष्कर्ष निकाला कि आर्यों के पूर्वजों ने अपने वंश या सम्प्रदाय का नामकरण संस्कृत भाषावली में इस भाषा के विकास (जो ऐतिहासिक वर्णानुसार काफी बाद में हुआ) के पूर्व में किया। विश्व की प्रथम सबसे उन्नत सभ्यता जोे एशिया महाद्वीप में विकसित एवं प्रसारित हुई, वह सिन्धु या हिन्दू सभ्यता थी। ऐसे कोई भी साक्ष्य एवं स्पष्ट प्रमाण या शिलालेख प्राप्त नहीं हुए हैं जो यह सिद्ध करते हों कि हमारे पूर्वज आर्य, मध्य एशिया से देशान्तर कर भारतवर्ष में आए थे।
द्रविड़ परिवार दूसरे बड़े भाषा-भाषी एवं समुदाय का निर्माण करते हैं जिसकी
आज 25 प्रतिशत जनसंख्या
है, और जिनका सभी
अप्रवासी समूहों से और भारतीय आर्यों के पूर्व ही भारत मे आगमन हुआ था । इस परिवार
की मुख्य भाषाएँ तेलगू, तमिल, कन्नड़ और मलयालम
है। संस्कृत के बाद कन्नड़ का इतिहास सबसे
लम्बा है, जो संस्कृत से
प्रभावित हैं। तेलगु संस्कृत के प्रभाव को प्रदर्शित करता है। मलयालम, संस्कृत और तेलगू
दोनों से प्रभावित है। तमिल भाषा भारत की दूसरी भाषा है, जिसे प्राचीन शास्त्रीय और आधुनिक भी कहा जा सकता
है। द्रवीड़ भाषाए संस्कृत से थोड़ा बहुत प्रभावित है। हिन्दू धर्म और भारतीय जीवन
पद्धति हिन्दूत्व सम्भवतः द्रवीड़ और आर्यों के मानसिक, संस्कृतिक और
आत्मिक पहलुओ और विचारों का सुंदर सम्मिलन है, जो सिन्धु घाटी की सभ्यता एवं संस्कृति में फूला - फला एवं विकसित हुआ। अत्यन्त भिन्न वर्ग
और जातियो़़़़़़़़ं ने अपनी संस्कृति और जीवन पद्धति की अच्छाइयों को संयुक्त करते
हुए सिन्धु सभ्यता का निर्माण किया।
अंग्रेज इतिहासकारानुसार एतिहासानुसार 6000 ई॰पू॰ के पूर्व ही
सिन्धु घाटी में प्राचीन सभ्यता अस्तित्व में थी और द्रविड़ों ने इस सभ्यता में और
बड़े-बड़े नगरों का निर्माण किया। आर्य जो पादरी या गड़ेरिएं किस्म की जाति थे , करीब 2000 वर्ष पूर्व भारत
आये होंगे। यद्यपि यह सही-सही ज्ञात नहीं है कि सिन्धु घाटी के लोगों और उनकी
सभ्यता का क्या हुआ पर यह माना जा सकता है कि वे उन आने वाले आर्यों में विलीन हो
गए हों जिन्होंने भारतीय संस्कृति को आत्मसात् कर लिया। द्रविड भगवान शिव की
मूर्ति के पूजक शैव थे और सम्भवतः सिन्धु घाटी की नगर सभ्यता के निर्माता थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा तथा अन्य सिन्धु नगरों
की खुदाई में ये सभी तथ्य पाए गए हैं।
यदि हम मुम्बई के
समुद्री किनारे के द्वीप में पाए गए एलिफैन्टा गुफाओं को देखे तो विशाल और पुरानी
मूर्तियाँ यही कहानी कहती लगती हैं कि द्रविड़ संस्कृति आर्य सभ्यता से बहुत पहले
भारत में विद्यमान थी।
यही महान सिन्धु घाटी सभ्यता के
सम्बन्ध में अंग्रेज इतिहासकारों का मत है। लेकिन यदि हम अपने महान ग्रन्थों का
अध्ययन करें तो यह कहानी सिद्ध नहीं होती और इसके लिए शोध करने की परमावश्यकता है।
हिमालय पर्वत श्रृंखला एक अर्धचन्द्राकार विशाल अभेद्य दीवाल की तरह भारत
के उत्तरी सीमाक्षेत्र को सायकिंग और तिब्बत के भूभागों से अलग करती है। इसी पर्वत
श्रृंखला में विश्व का उच्चतम पर्वत शिखर स्थित है, और यह श्रृंखला व्यवहारिक रूप से निरंतर 2500 किमी॰ लम्बाई मे
घेराव किए हुए भारत के 5,00,000 वर्ग कि॰मी॰
क्षेत्र की रक्षा करता है। हिमालय श्रृंखला में एवरेस्ट तथा दस अन्य पर्वतीय
चोटियाँ 7500 मीटर से भी अधिक
ऊँची है।
यह क्षेत्र अविस्मरणीय अपूर्व पौराणिक कथाओं और हिन्दू साहित्य में संतों
और देवी देवताओं के निवास स्थान, पार्वती माता का गृह, भगवान शंकर का सिंहासन (कैलाश पर्वत) तथा सबसे पावन पवित्र तीर्थस्थल के
रूप में वर्णित है। मानसरोवर तथा गंगा आदि अनेक पवित्र जीवनदायिनी नदियों का स्रोत
यह हिमालय ही है। हिमालय से गमन का रास्ते बाधापूर्ण, आड़े-तिरछे एवं
भयावह है तथा सभी तिब्बत के उच्च पठारी भूमि (जिसे विश्व का छत भी कहा जाता है) से
दर्रों के रूप में निकलते हैं। बाहरी श्रृंखला शिवालिक जो एक तत्कालीन टूटी एवं
बिखरी हुई पहाड़ी है, समतल भूमि की प्रथम
बाधक दीवार का निर्माण करती है। हिमालय का विस्तार हिन्द कुश की तरफ सिलसिलेवार है
तथा बाहरी शाखा पश्चिम में फैली हुई है। पश्चिमी लुसाई पहाड़ी अविस्मरणीय विशाल
अवरोध हैं ,जो बाहरी दुनिया से
इसे अलग करता है।
हिन्दूकुश के नीचे के सीमान्त जिलों में पठान क्षेत्रों के जिले हैं, जहाँ आज भी असंख्य
जंगली कबीलों का निवास है। पश्चिमोत्तर भारत की व्याख्या प्रायः (बहुत हद तक)
भारतीय इतिहास का सार है। यह दक्षिण की तरफ समतल भूमि के रूप में निरन्तर
हिन्दूस्तान के मैदानी इलाके के रूप में विस्तृत है, जो मनु (भारतीय ग्रंथों के अनुसार प्रथम मानव) के
आर्यावर्त्त (आर्यों का निवास स्थल) के रूप में जाना जाता है। कश्मीर प्राचीन काल
में हिन्दू संस्कृति का प्रभावी एवं महत्वपूर्ण केन्द्र था। इसकी वादियाँ प्राचीन
काल से कई संस्कृत कवियों एवं विद्वानों का निवास स्थल थी। ब्रह्मपुत्र एवं उसकी
घाटियाँ अपने साथ चाय, कॉफी एवं फल-फूल
उत्पादन की क्षमता लिए, उत्तर पूर्व सीमाक्षेत्र के प्रमुख अंग के रूप में
देखी जा सकती है, जहाँ असंख्य
हिमालय-क्षेत्रीय जंगली कबीलों का निवास स्थल है।
कश्मीर के जलाशय से
बहती सिंधु नदी तथा उत्तर पूर्व में बहती ब्रह्मपुत्र इस महान धरती माँ पर फूलों
का हार पहनाती प्रतीत होती है जो अपने पावन जल से भारत भूमि को निरन्तर पवित्र
करती अपने साथ सारी गंदगी सागरों में उढ़ेल देती है। भारत की सीमायें पश्चिम-दक्षिण
में अरब सागर, दक्षिण-पूर्व में
बंगाल की खाड़ी, उत्तर-पूर्व एवं
पश्चिमोत्तर में हिमालय पर्वत श्रंृखला से सुरक्षित है। हिन्द महासागर, दक्षिण छोर स्थित
कन्याकुमारी के तटों को निरन्तर छूती रहती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो हिन्द
महासागर कन्याकुमारी रूपी भारत माता के चरणों को निरन्तर धो रहा हो।
अरावली पर्वत-श्रृंखला जो विश्व के प्राचीनतम पर्वतों में से एक है, पश्चिमोत्तर में
स्थित है। अरावली श्रृंखला पूर्व ऐतिहासिक काल में एक विशाल बर्फीली पर्वत माला थी, जिसकी कई चोटियाँ
बर्फीली थीं। आज यह श्रृंखला पौराणिक काल के भौगोलिक अवशेष के रूप में विद्यमान
है। पटकई और इसको जोड़ने वाली दूसरी पर्वत श्रृंखला पूरे बंगला-बर्मा भारत सीमा में
फैली हुई है तथा संयुक्त रूप से पूर्वांचल पर्वतों के नाम से जानी जाती हैं।
भारतीय भूमि के टीले, पहाड़ियों तथा समस्त
समतल भाग एक समस्थलीय चौरस भूमि के रूप में अवलोकित होते हैं। अधिकांश भारतीय भूमि
इसी प्रकार की है।
भारत वर्ष में 60 से अधिक भिन्न
भाषा-भाषी लोगों का लगभग उतने ही कबीलों, सभ्यताओं एवं वर्गों में निवास है। इस प्रकार की बहुआयामी एवं विभिन्न
भाषीय जनसंख्या केवल भारतवर्ष मेें ही है , विश्व के दूसरे भाग मेें नहीं, यह एक विस्मय एवं विचार का विषय है। अगर हम इतिहासकारों की बात पर
विश्वास एवं विचार करें , तो यह विषय और
भी भ्रमात्मक एवं अतार्किक हो जाता हैैैै। यह एक स्वीकृत तथ्य है कि मानव की
उत्पत्ति के चिन्ह एशिया महाद्वीप में प्राचीनतम हैं। हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति
विश्व में सबसे प्राचीन है तथा इसने अपना प्रभाव एशिया के सभी हिस्सों पर छोड़ा है।
ऐसी मान्यता है कि भारत वर्ष एक धनी सम्पन्न राष्ट्र था, जिससे आकर्षित होकर
विभिन्न सभ्यताओं का भारत भूमि में आगमन हुआ। यह भी एक सर्वमान्य सच्चाई है कि भारतीय
उपमहाद्वीप के प्रवेश मार्ग सबसे दुर्गम तथा कठिन थे तथा जनसाधारण एवं लोगों की
पहुंच के परे थे। भारतीय जलवायु भी नम एवं गर्म है जो स्वास्थ्य एवं शारीरिक
परिश्रम के लिए उपयुक्त नहीं। एशिया के अन्य भागों में फैली विशाल समतल उपजाऊ भूमि, जल एवं धातु संसाधन
का विचार करें तो यह बात और भी अतार्किक एवं विस्मयकारी लगती है कि आदि मानवों ने
इन सारी दुविधाओं एवं दुर्गम रास्तों को पारकर भारतवर्ष में बसना चाहा। यह बात भी
दिमाग में हलचल मचाती है कि क्यों आदि मानवों ने यूरोप एवं मध्य एशिया में स्थित
विशाल समतल भूमि को अपना निवास स्थल नहीं बनाया। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि गंगा
एवं अन्य महानदियों से संलग्न समतल उपजाऊ भूमि को पौराणिक काल में हमेशा बाढ़ से
जलमग्न होने का खतरा बना रहता था तथा अधिकांश नगर एवं सभ्यताएँ इन प्राचीन
महानदियों में जलमग्न एवं नष्ट हो गई थी।
प्राचीन भारत, जिसका अफगानिस्तान
एवं पाकिस्तान भी एक अभिन्न अंग था, वेदों एवं पुराणों में देव भूमि के नाम से जाना जाता है। पौराणिक
वर्णनानुसार देवों को यह भूमि अत्यन्त प्रिय थी और यहाँ देवों एवं असुरों का वास
था तथा उनके बीच आदि-काल से ही सम्बन्ध स्थापित थे। ऋग्वेदानुसार जब वेदों की
संरचना हुई तो पृथ्वी पर सिर्फ देवों एवं असुरों का निवास था। देवों एवं असुरों
में हमेशा संघर्ष होता था तथा दोनों देवाधिदेव-महादेव की पूजा करते थे। इससे हमारी
इस धारणा को बल मिलता है कि देव, ईश्वर नहीं थे वरन् अपने समय के
देव-तुल्य मानव थे जिनके आराध्य महादेव-आदिशक्ति माँ थीं।
ऐतिहासिक तिब्बत (जिसे ‘दुनिया का छत’ भी कहा जाता है) और
उसके इर्द-गिर्द अनेक कबीलों के अस्तित्व का वर्णन मिलता है और हिमालय के मैदानी
क्षेत्रों में प्राचीन सभ्यता के चिह्न को भी इतिहास रेखांकित करता है। मुख्यतः
मंगोल जनजातियाँ हिमालय के उत्तर-पूर्व और उत्तरी भागों में अवस्थित थी। यहाँ यह
कहना प्रासंगिक है कि इन प्राचीन सभ्यताओं में अनेक चीजें सामान थी।
चीनी लोग खगोल विद्या से परिचित थे और उन्होने पंचांग (कैलेण्डर) बनाया
और उसका पालन किया जो चन्द्रमा के गति से सम्बन्धित था, जो कि वेदों के
वर्णनानुसार है वे हिन्दू राजाओं की तरह अपने राजा को ईश्वर के पुत्र की तरह मानते
थे। हिन्दू राजा स्वयं को विष्णु (हिन्दूओं के ईश्वर) का प्रतिनिधि मानते थे और
हिन्दू धर्म एवं मान्यताओं के अनुसार राजधर्म का पालन करते थे। एक मात्र हिन्दू
राष्ट्र नेपाल में अभी भी राजाओं को ईश्वर
(जिसे विष्णु पालनकर्त्ता के रूप मे जाना जाता है) का पुत्र समझा जाता है।
यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक है कि भारतीय और चीनी धातु, यौगिकों और
रसायनशास्त्र के प्रथम जानकार एवं उपभोगी थे। यहीं से विश्व के अन्य भागों में इन
विद्याओं का प्रचार-प्रसार हुआ। यदि हम भारत और चीन की प्राचीन संस्कृतियों का
अध्ययन करें तो पाते हैं कि सूती-रेशमी वस्त्र निर्माण, जरीदार कड़ाई-टंकाई
और मनभावन रंगो की अच्छी छपाई आदि अनेक चीजें दोनों जगह विकसित थी। इतिहास गवाह है
कि कालान्तर में ये जातियाँ सनातन धर्म हिन्दूत्व, हिन्दू धर्म और जीवन दर्शन से प्रभावित हुई तथा
हिन्दू देवी, देवताओं और संतों
की पूजा करने लगीं।
इन सारे तथ्यों से
यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारी सभ्यता सबसे प्राचीन एवं उन्नत सभ्यता है।
हमारे पूर्वजों ने अपनी जाति को आर्य नाम दिया जिसका अर्थ ‘‘एक अच्छा परिवार’’ होता है। सुदूर
उत्तर में स्थित पौराणिक उत्तराकुश के आदर्श ग्रामीण समुदाय के गण आर्यों के पहले
विश् (कबीले) थे। सम्भवतः इसी विश् के रूप में आदिकालीन आर्यों ने एशिया महाद्वीप
की यात्रा प्रारम्भ की तथा मध्य एशिया और सुदूर स्थानों में फैल गए। देवों के
निवास के लिए हिमालय की बर्फीली वादियाँ एवं जलवायु काफी अनुकूल थी और यह आर्यों
के भारत के उत्तर और उत्तर-पश्चिम की ओर फैलाव एवं विस्तार से प्रतिबिम्बित हुई।
ठण्डे एवं अनुकूल जलवायु की खोज आर्यों के यूरोपीय महाद्वीप एवं एशिया के पश्चिम
पूर्व, मध्य एवं
भू-मध्यसागर की ओर ले गई तथा वे वहाँ के मैदानी इलाकों में बस गए। वहाँ की सभ्यता
संस्कृति में स्वास्तिक एवं आर्य सभ्यता के बहुत से चिह्नों का पाया जाना यह
दर्शाता है कि आर्य देवों से भौतिक, शारीरिक विशिष्टताओं, आदतों और संरचना की दृष्टि से समकक्ष थे। इसलिए वे एक उत्तम परिवार कहे
गए। यह पुनः हमें ऐसे विचार देता है कि हमारे पूर्वजों ने नस्ल सुधार के क्रम में
प्रजनन के विविध पद्धतियों का उपयोग किया तथा उन विश् (कबीलें) को एक अलग वंश के
रूप में, सीमित सहयोग से
विकसित होने के लिए आजाद छोड़ दिया।
प्रारम्भ में प्रत्येक कबीले की अपनी संस्कृति, रहन-सहन एवं
पूजा-पद्धति थी। सभी के अपने अपने पूजनीय देवी देवता थे। हिन्दू संस्कृति में अपने
पूर्वजों की पूजा अर्चना करने की परम्परा रही है, जो आज भी प्रचलित है। हिन्दू धर्म शास्त्रों एवं
पौराणिक कथाओं के अनुसार अन्य वंशों की अपेक्षा आर्यों में देवों द्वारा
ज्ञानार्जन की अधिक सहभागिता थी।
सतयुग के स्वर्ण काल में मानव समाज केवल एक जाति देव या ब्राह्मण रूप में
विद्यमान था। विश् या कबीलों का विचार बाद में आया। प्रारम्भिक प्रजापति अपने मातृ
नाम जैसे अदिति, धोषा, अमाला, मार्गी, मैगेभी, कद्रु, विनाता के
पुत्र के नाम से जानेे जाते थे। ऋग्वेद और
महाभारत के प्रथम स्कन्ध के अनुसार यह स्पष्ट होता है। ये प्रथम माताए ही मानव
उत्पत्ति के क्रम में पांचवीं मानव सृष्टि की मूल स्रोत मानी जाती हैं।
भारत में हिमालय की तराई वाले विभिन्न भागों में बहुतेरे कबीलों का निवास
था तथा सभी मातृ पक्ष नामकृत थे। सतयुग का एक जातीय पौराणिक समाज कबीलाई अनुशासन
एवं सम्बन्धों से बंधे कबीलों के समूह के रूप में जाना जाता है। मनुष्य शिकारी एवं
युद्ध के कबीलाई कानून से अनुशासित थे। कब और कैसे मातृपक्ष प्रथा समाप्त होकर
पितृपक्ष समाज के रूप में व्यवस्थित हुई, यह ज्ञात नहीं। बाद में शक्ति पूजा, जगजननी माँ विचार धारा की उत्पत्ति हुई। हिन्दू समाज आज भी शक्ति की पूजा
असीम श्रद्धा से माँ के विभिन्न नामों से करता है।
जब विश् और जन वातावरण से परिचित हुए और मानवता का विकास पूर्ण हुआ, तब आर्योंं ने
देवों के सहयोग से उन्हें समता के आधार पर एकता के सूत्र में एक समुदाय के रूप में
संगठित किया।
तत्पश्चात् एक ‘सामाजिक व्यवस्था’ तथा ‘अचारसंहिता’ का निर्माण हुआ
जिसमे असंख्य कबीलों और कुलों का समावेश सम्भव हुआ। विश् का विभिन्न ‘गोत्रों’ में विभाजन हुआ
(प्रत्येक व्यक्ति अपने पैतृक कुल एवं पिता के नाम पर अथवा अपने पावन संतों या
ब्राह्मण के नाम पर) इसके बाद आयी वर्ण व्यवस्था तथा कर्मों के आधार पर जाति
निर्धारण। इसी दृष्टि से आज भी हिन्दू समाज में विभिन्न जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के गोत्र
समान हैं। हमारे पूर्वजों ने सनातन धर्म या हिन्दूत्व नामक जीवन पद्धति का निर्माण
विश् या कबीलों की धार्मिक,
सांस्कृतिक
विभिन्नताओं को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए किया था।
इस महान राष्ट्र की आर्थिक
प्रगति के लिए श्रम विभाजन आवश्यक समझा गया। इसलिए वर्ण व्यवस्था का विकास हुआ। कुल
अथवा परिवार , सामाजिक और
राजनैतिक व्यवस्था का आधार बना। कुल से शुरू होकर प्रधानता के बढ़ते क्रम में ग्राम, वंश, जन और राष्ट्र का
निर्माण हुआ। बहुत सारे विश् (वंशों) को मिलाकर जन का निर्माण किया गया। बहुत सारे
जनपदों को मिलाकर राष्ट्र का निर्माण हुआ। इनमें से अनेकों का वर्णन ऋग्वेद और
अन्य साहित्यों में है। राष्ट्र समान्यतः राजा द्वारा शासित थे। यद्यपि गैर
राजतान्त्रिक संगठन भी गनपति या गण
ज्येष्ठ के रूप में विद्यमान थे। कुछ कबीलों में ऐसी प्रथा थी जिसमें राजकीय
परिवार के अनेक सदस्य संयुक्त रूप से राज्य करते थे। जनसाधारण की सम्पत्ति एवं
जीवन रक्षा, राष्ट्र में सुख
शान्ति व्यवस्था, प्रशासन और
विधि-व्यवस्था, ये सभी राजा के
नैतिक कर्त्तव्य थे। सेनापति और धार्मिक प्रधान, नैतिकता, कानून और धर्म की स्थापना एवं संचालन करते थे। राजा की स्वछन्द शक्ति
प्रयोग पर नियन्त्रण के लिए प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सभा एवं समिति नामक दो
लोकप्रिय परिषदें थी, जो महत्वपूर्ण
विषयों पर लोकमत व्यक्त करती थी।
न्याय और दण्ड
प्रशासन राजा के प्रधान मौलिक कर्त्तव्य थे। पुरोहित और सभा समिति भी उन्हें इसमे ंसहयोग करती थी। अतः यह स्पष्ट होता है कि
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था और शासन प्राचीन काल से ही भारत में प्रचलित था। हमारे
प्राचीन इतिहास एवं ग्रन्थों में कहीं भी किसी तानाशाह या सैनिक शासक का वर्णन नहीं
है। हमारे पूर्वजों ने अपनी जीवन पद्धति को नैतिक, व्यवहारिक और उच्च दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित
किया और उसी के अनुसार ग्रन्थों और उपनिषदों (असंख्य किन्तु प्रमुख्य मान्य केवल 11) की संरचना की।
प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी
कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे ‘धर्म’ के नाम से जाना
जाता था, के द्वारा होता था।
धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में
सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्त्तव्य-संहिता का निर्धारण करता था। धर्म शास्त्र एवं
संहिता में विभिन्न जाति एवं व्यवसायिक वर्गों के लिए नियम निर्धारण किया जाता था
तथा समाज के विभिन्न वर्गों राजा और उसके अधिकारियों के बीच के सम्बन्धों की
व्यवस्था किया जाता था। विश्व की सभी पुरानी सभ्यता की तरह भारतीयों के जीवन-यापन
में धर्म एक आवश्यक अभिन्न अंग था।
भारतीय राजाओं के इतिहास एवं वंशावली का वर्णन पुराणों (पुराना अर्थात
प्राचीन) में हुआ हैं। उपनिषद, भागवत गीता एवं योगवशिष्ठ की शिक्षा एवं उपदेशों को जन साधारण तक
पहुँचाने औरं लोकप्रिय बनाने के लिए, उनका धार्मिक रीति-रिवाजों में समावेश एवं सम्मिश्रण कर उन्हे जनभुती के
रुप मे पुराणों में प्रस्तुत किया गया है। पुराणों में लिखी वंशावली तथा ऐतिहासिक
घटनाएँ इतनी अविश्वसनीय नहीं है जितनी कि इतिहासकारों ने इसे दर्शाया है। बहुत
सारी ऐतिहासिक घटनाएँ एवं साक्ष्य के पन्ने उनसे हटाए/ फाड़ दिए गए हैं तथा ऐसा अनुमान
है कि प्राचीन वैदिक परम्परा की क्रमावली जो इन पौराणिक ग्रंथों में साक्ष्य के
रूप में संग्रहित थी, उसे तोड़ मरोड़ कर
प्रस्तुत या नष्ट कर दिया गया है।
सभी प्रजातियाँ इस
नए सनातन या हिन्दू व्यवस्था एवं सभ्यता
को अपनाने के लिए विधिपूर्वक बाध्य थी। जिन्होंने इन्कार किया उन्हें अपनी भूमि से
हाथ धोना पड़ा। वे बाध्य होकर पहाड़ियों और जंगलों की तरफ पलायन कर गए तथा उन्हें
शिकार और लूट-पाट कर जीवन-निर्वाह करना पड़ा।
विश् का विभाजन तीन
भागों में किया गया था। विश् के प्रधान अंश वैश्य थे जो उद्यमियों का काम जैसे
खेती, पशुपालन तथा
व्यापार आदि में लीन थे। ब्राह्मण धर्म प्रचार का कार्य करते थे जिनका उद्देश्य
समानता और आचार-संहिता के आधार पर कानून बनाना, शिक्षा तथा लोककल्याण होता था। क्षत्रीयों के लिए राजशासन एवं रक्षा का
कार्य निर्धारित था। तीनों वर्ग अपने-अपने कार्य में प्रवीण थे तथा समाज में अपने
कर्म के आधार पर प्रतिष्ठित थे। जिन आदिवासियों ने शुरू में आर्यों की इस व्यवस्था
से अपने को उदासीन रखा, उन्हें शूद्र वर्ण
का कार्य जैसे कि झाड़ू लगाना, लाश जलाना और अपराधियों को सजा देना, दिया गया।
आरम्भ में वर्ण व्यवस्था का निर्धारण वंश परम्परा के आधार पर नहीं था।
जिन वैश्यों एवं शूद्रों में सामर्थ्य व योग्यता थी, वे अपने मकसद एवं प्रतिष्ठा को ऊँचा कर सकते थे
तथा उन्हें उन्नत वर्ण प्रदान किया जाता था। इस मनुवादी वर्ण विभाजन
(वर्णाश्रमधर्म व्यवस्था) को लोगों ने बाद
में गलत तरीके से परिभाषित किया एवं उपयोग में लाया। स्वार्थी शासक वर्ग ने इस
वर्ण-व्यवस्था का लोगों में फूट डालकर उन पर शासन करने में बखूबी उपयोग किया।
हमारेे प्राचीन ग्रन्थों एवं शास्त्रों में इस बात का स्पष्ट वर्णन है कि क्षत्रिय वर्ग एक खास उम्र होने पर
सन्यास धरण कर लेता था। क्षत्रिय, जो कि तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र एवं धार्मिक उपदेशों में लीन हो जाते उन्हें ब्राह्मण कहा
जाता था। हमारे धार्मिक कथाओं में ऐसे स्पष्ट वर्णन हैं, जो ये दर्शातें हैं
कि कई क्षत्रियों ने अपने पुत्रियों का विवाह ब्राह्मण समाज और संतों से किया था।
एक ऐसी ही प्रचलित जनश्रुति सत्यपथ ब्राह्मण जनक, विदेही का राजा और वेदों में वर्णित विश्वामित्र
की है। याज्ञवल्यक्य धर्मशास्त्र (धार्मिक कानून) के निर्देशानुसार शूद्र वर्ण को
वैश्यों के काम जैसे कि कृषि, व्यापार और कला आदि कार्यों को करने की अगर उनमे यथोचित्त योग्यता हो, की इजाजत थीे।
इसलिए यह एक सर्वमान्य सच्चाई है की वर्ण
प्रथा या जाति प्रथा पौराणिक काल कीे एक श्रम विभाजन की प्रथा थी, जिसका उपयोग हमारे
पूर्वजों ने इस महान राष्ट्र को आर्थिक महाशक्ति के रूप में विकसित करने में किया।
यही कारण है कि उस समय यह राष्ट्र पूरे विश्व में ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से जानी जाती थी।
हमारे ऋषियों ने मनुष्य की जीवन प्रणाली को सुधारने का प्रयास किया। इसके
लिए उन्होने एक सुनियोजित प्रणाली विकसित की, जिसे आज हम आश्रम धर्म के नाम से जानते हैं। ये आश्रम थे - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और
सन्यास। यह उस काल की उपयुक्त एवं लाभकारी व्यवस्था थी।
‘मेगस्थनीज’ ने अपने भारत
यात्रा के विवरण (चौथी शताब्दी ई॰पू॰) में यह स्पष्ट लिखा है कि भारतीय जातिप्रथा
एक व्यवसाय-निर्धारण की व्यवस्था थी। व्यवसाय-निर्धारण का कार्य जन्म से न होकर
कर्म के आधार पर होता था। वर्ण-व्यवस्था इसमें एक मुख्य भूमिका निभाती थी।
औरतों को सतयुग में मर्दों के बराबरी का दर्जा दिया जाता था। दीक्षा
(उपनयन) लड़कियों को भी दी जाती थी। वे वेद पठन-पाठन का कार्यएवं ब्रह्मचर्य का
विधिवत्त पालन करती थीं। वैदिक काल में औरतें शिक्षा के हर क्षेत्र में सक्रिय
थीं। घोषणा, अल्पा और
विश्वाकर्म जैसी विदुषियों ने उच्च कोटि के वैदिक स्रोतों की रचना की थी। उच्च
घरानों की महिलायें वैदिक यज्ञों में अपने पति की अभिन्न सहभागिनी थी। वे अपने नाम
से जायदाद रखती थी तथा विधवायें पुनः विवाह कर सकती थी।
भारत में बहुआयामी, भ्रमात्मक बहुभाषीय वंशावली तथा उससे निर्मित समाज की उत्पत्ति का कोई भी
तर्क या कारण हो, परन्तु इसे संगठित, सुनियोजित करना
हमारे पूर्वजों के समक्ष एक बहुआयामी एवं कठिन चुनौती थी। हमारे पूर्वजों ने शरतीय
जनसंख्या को एकता के सूत्रों में पिरोकर एक सर्वधार्मिक, गतिशील, नैतिक एवं संयुक्त, अध्यात्मिक, प्रगतिशील समाज की
संरचना की। हमारे पूर्वजों ने विकास के उन्नत विचारों को जन्म दिया तथा पंचतत्वों
की पूजा अर्चना करने लगे। आर्यों ने इस महान जन्मभूमि का सूक्ष्म गहन अध्ययन किया
तथा प्रकृति द्वारा प्रदत इन उपहारों की पूजा अर्चना को अपने धर्म माना।
ऐसी अवधारणा है कि पौराणिक काल में भारतीय समाज विभिन्न वर्गों में
विभाजित था। सभी वर्गों के अपने देवता एवं धर्म थे। सनातन धर्म को मानने वाले कई
बार इस बात से आश्चर्यचकित हो जाते हैं, कि हमारे पूज्य देवता बहुसंख्यक क्यों है ? अन्य धर्मों की तरह एकांकीक क्यों नहीं है ? हमारे सनातन धर्म
ग्रन्थों एवं शास्त्रविधियों में पूजनीय एवं उत्तम पूजनीय देवताओं का वर्णन एवं
विधान है। सनातन धर्म व हिन्दू व्यवस्था या हिन्दूत्व ऐसे में एक समान राष्ट्रीय
आन्दोलन और विचारधारा के रूप में विकसित की गयी जिसमें समाज के सभी वर्गों के
देवता पूजनीय माने गए। लेकिन विद्वानों एवं संतो ने वैचारिक एवं धार्मिक टकराव को
दूर करने के लिए सभी को अपने-अपने इष्ट देवता के चुनाव की छूट दी है। हमारे हिन्दू
ग्रन्थों एवं शास्त्रविधियों में अग्र पूजनीय एवं उत्तम पूजनीय देवताओं का वर्णन
एवं विधान है।
हमारे पूर्वजों तथा महान आर्यों ने इस पावन भूमि की प्राकृतिक सम्पदा को
समझा परखा तथा सम्यक् आँकलन किया। उन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया
एवं मठों और मन्दिरों का निर्माण देश के हर भाग एवं कोने में किया।
हमारी पवित्र
जलधाराएँ (नदियाँ) जो इस राष्ट्र की भूमि का सिंचन कर जनता को भोजन उपलब्ध कराती
थीं तथा यहाँ उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ एवं प्राकृतिक सम्पदा को उचित वातावरण
प्रदान कराती थीं, वे सभी पूजनीय थीं।
संतों ने इस राष्ट्र की महान सप्त नदियों को खोजकर उनका नामकरण एवं पूजन कर उनके
तट पर मन्दिरों एवं सभ्यताओं का निर्माण किया।
आर्यों ने इन पूज्य महानदियों की हमारी मातृभूमि के विकास और समृद्धि में
योग्य भूमिका को समझा तथा इनके पवित्र जल को हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों एवं
यज्ञों में आवश्यक सामग्री के रूप में सम्मिलित किया। हमारे राष्ट्र के पंचतत्वों
भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश का
हमारे पूर्वजों ने सूक्ष्म विश्लेषण एवं अध्ययन किया एवं उनका उपयोग अपने जीवन, संस्कृति एवं
धार्मिक क्रियाकलापों में बखूबी किया। इस प्रकार उन्होंने इस महान राष्ट्र को जनता
की जीवनधारा, जीवन पद्धति एवं
सभ्यता से जोड़ दिया।
इस काल के अधिसंख्य
भारतीय विद्वान, धार्मिक, आध्यात्मिक और
समृद्ध थे। हिन्दूइज्म (धर्म) जीवन जीने की एक व्यवस्था के रूप में विकसित हुआ।
हमारे धार्मिक एवं अध्यात्मिक ग्रन्थों में जीवन के कुछ व्यवहारिक और आवश्यक नियम
वर्णित है। जिनमें अपने देश के विभिन्न भागों का तीर्थाटन भी शामिल है। तीर्थाटन
व्यवस्था धार्मिक पुष्टीकरण से दृढ़ की गई, जिससे राष्ट्र की भौगोलिक एकता का समावेश जन साधारण के बीच हो। तीर्थ
स्थलों की स्थापना भारत के हरेक कोने में धार्मिक स्थलों का निर्माण करके की गई।
इस प्रकार उन्होंने इस महान राष्ट्र को जनता की जीवनधारा औरं सभ्यता से जोड़ दिया।
हिन्दूत्व प्राचीन भारत की जीवन शैली थी जिसमें जीवन के हर भाव वर्णित एवं
पूज्यनिय थे।
हमारे पूर्वजों ने
पूर्व ऐतिहासिक काल से ही अखण्ड भारत की प्राकृतिक भौगोलिक रचना कर ली थी।
देशभक्तों एवं राष्ट्र विचारक विद्वतजनों ने एक ऐसे विजेता चक्रवर्ती सम्राट के
विधिवत राज्याभिषेक का वर्णन ‘‘ब्राह्मणास’’ में किया है।
कौटिल्य ने भारतवर्ष में चक्रवर्ती सम्राट की राजकीय सीमा हिमालय से शुरू कर
समूद्र में हजार योजन आगे की ओर निर्धारित की थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि
राष्ट्रवादी विचारधारा एवं राष्ट्र की सीमाओं का आँकलन पूर्व ऐतिहासिक काल से ही
निर्धारित रहा है।
पूर्व वैदिक काल में जनता प्राकृतिक शक्तियों की एवं उनके अनुमोदन पर
विश्वास करती थी तथा पैतृक एवं मातृक दिव्य शक्तियों की पूजा करती थी। वेद तथा
ब्राह्मणास वैदिक काल में रचित प्रथम विस्तृत साहित्यिक पुस्तकें थीं।पूर्व वैदिक
काल के लोग कर्मकांड तथा यज्ञों के विधि-विधानों की महत्ता को स्वीकार करते थे, इस बात पर
इतिहासकारों एवं विद्वानों में मतभेद है।
हमारे धर्म
ग्रन्थों में पुष्पक विमान और अन्य ऐसी आधुनिक वस्तुओं का वर्णन है जो कि इस युग
में प्रचलित सुविधाओं से ज्यादा उन्नत प्रतीत होती है। सिपाही एवं सेनाएँ ऐसे
अस्त्रों का प्रयोग करती थी जो आदि मानव के लिए चमत्कारी एवं अद्भुत थे। ये
द्विव्य-अस्त्र उन्हें देवों द्वारा प्राप्त होते थे। चलायमान किला एवं ऐसे मशीनों
का जिक्र है जो शक्तिशाली दुर्गों को नष्ट करने में काम आते थे।
कृषि, व्यापार, कुटीर उद्योग जो
प्राचीन मानव के प्रमुख उद्योग थे, सभी इस काल में फले-फूले एवं विकसित हुए। कृषि आर्थिक स्थायित्व का मुख्य
स्तम्भ था तथा सम्माननीय समझा जाता था। कृषि की सभी पद्धतियाँ परिभाषित और समझी
हुई थीं। हल 6 से 12 बैलों द्वारा जोते
जाते थे। सिंचाई के लिए नहरों की खुदाई की जाती थी।
भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती थी। सभी ग्रामवासी उच्च धार्मिक एवं
नैतिक मूल्यों के पालनकर्ता थे। भारतीय स्वर्णयुग (जब इसे सोने की चिड़िया कहा जाता
था) में ग्राम एक स्वावलम्बी आर्थिक इकाई के रूप में विकसित एवं समृद्ध होकर
राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भूूमिका निभाते थे। कृषि तथा उसपर आश्रित कुटीर उद्योग, जो उस काल का
एकमात्र उद्योग था बेहद विकसित था। गाँवों की अपनी जनतान्त्रिक एवं आर्थिक
व्यवस्था थी जो ग्राम विकास के कार्यों को संचालित करती थी और यही प्राचीन भारत के
सामाजिक, आर्थिक एवं
सांस्कृतिक निर्माण एवं समृद्धि में सहायक हुईं।
कला एवं शिल्प एक घरेलू उद्यम था। प्रशिक्षण और शिक्षा प्रारम्भिक तौर पर
पिता से पुत्र को मिलती थी। यह प्रमुख कारीगरों द्वारा अपने स्वजातीय समुदायों या
शिल्प सहायकों को प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन
सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे ‘धर्म’ के नाम से जाना जाता था, के द्वारा होता था। धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता
था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्त्तव्य-संहिता का निर्धारण
करता था। धर्म शास्त्र एवं संहिता में विभिन्न जाति एवं व्यवसायिक वर्गों के लिए
नियम निर्धारण किया जाता था तथा समाज के विभिन्न वर्गों राजा और उसके अधिकारियों
के बीच के सम्बन्धों की व्यवस्था की जाती थी। विश्व की सभी पुरानी सभ्यता की तरह
भारतीयों के जीवन-यापन में धर्म एक आवश्यक अभिन्न अंग था।
वैश्य एक बहुुल्य समाज के लोग थे
जिनमें से कुछ अपने कर्मों से आर्थिक रूप से सबसे सम्पन्न थे। व्यापारी अपने माल
को जहाज में भरकर समुद्रीक मार्ग से सूदूर मेसोपोटामिया और इष्ट इण्डीज तक
पहुँचाते थे।
आर्थिक संपन्नता की सीढ़ी का क्रमांक ऊपर से नीचे की ओर प्रमुख
राज्याधिकारी, , आमात्य, कोषाध्यक्ष, व्यापारी, भूूू-स्वामी, छोटे किसान, कारीगर और कलाकार ,छोटे पदाधिकारी और
कमकर थे। भारतीय साहित्य यह दर्शाते हैं कि यहाँ के बुने कपड़ों का प्रभुत्व पूरे
विश्व में 2000 सालों तक था।
सनातन या हिन्दू
समाज प्राचीन काल से ही अपनी प्रजा या समाज को शिक्षित करना अपना मौलिक कर्तव्य
समझती थी। यही वह आधार था जिसपर ‘हिन्दू संस्कृति’
स्थापित थी। इस
प्रथा को वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था। जिसका अभिप्राय जीवन कर्म को
वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम नियमों से व्यवस्थित करना है। वर्णाश्रमधर्म व्यवस्था
(वर्ण + आश्रम + धर्म) भारतीयों के
जीवन कर्म को व्यवहारिक प्रचलित रीति-रिवाज एवं शिष्टाचार से नियन्त्रित एवं
अनुशासित करने की व्यवस्था थी। अपने पैतृक घर में जन्म लेने के बाद शिष्यों का
आध्यात्मिक पुनर्जन्म अपने गुरू (उपदेशक) के पास होता था, जहाँ वे ब्रह्मचर्य
की शिक्षा लेते थे। ब्रह्मचर्य अनुशासित जीवन पद्धति थी, जो भोजन, कपड़ों, शिक्षा, समाज-कल्याण एवं
धार्मिक आचरण हेतु किए गए प्रयासों की व्यवस्थित प्रणाली थी। शिक्षा का अर्थ
मनुष्य की आन्तरिक, रचनात्मक मानसिक
विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त प्रणाली नियम, विधि और व्यवस्था
विकसित करना था। ये प्रणाली इस सिद्धान्त पर आधारित थी कि मनुष्य का विकास का
अभिप्राय उसकी बुद्धि एवं स्मरण-शक्ति का स्वाभाविक सामर्थ्य और रचनात्मक विकास
है। सोचने के सिद्धान्त-मनन शक्ति को सोचने के प्रकरण से ऊँचा आँका जाता था।
इसीलिए मनुष्य का मस्तिष्क ही प्राथमिक शिक्षा का विषय (साधन) थी । शिक्षा को तीन सरल विषयों में विभाजित
किया गया श्रवण, मनन, निद्धीयासन। श्रवण
का शब्दार्थ अपने अध्यापकों (गुरू) के वाणी से उच्चारित सच्चाई को सुनना था।
मनन श्रुति के नाम से जाना जाता था जो कर्णों से सुना जाए, न कि लेखन से जाना
जाए। यह एक मौखिक परम्परा थी जो गुरू के द्वारा शिष्यों को दी जाती थी और जो एक
अटूट श्रंृखला में गुरू-शिष्य-परम्परा के नाम से जानी जाती थी। इसका ग्रन्थान्तरण
नहीं हो पाया इसलिए यह जनश्रुति, संवाद की परम्परा कितनी सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है, इसका समय निर्धारण
अत्यन्त ही कठिन है। इसीलिए हमारे मूल सूत्रो, पद्यो, अध्यायो, पाण्डुलिपियों, ग्रथों, वेदों, रामायण और महाभारत आदि
की संरचना कब हुई यह बताना अत्यन्त कठिन है।
हिन्दूस्तान पर
विजय प्राप्त करने वाले तुर्को के शासनकाल में भी भारतीय समाज के रहन-सहन के ढंग व
रीति-रिवाजों में विशेष परिवर्तन नहीं देखे गए। यहाँ स्थित सामाजिक व आर्थिक
संस्थान कुछ इस प्रकार से विकसित थेे कि सही मायने में वे ही लोक-प्रशासन में
सहायक हुए। अस्तु, विदेशी आक्रांताओं
ने कुछ विशेष प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं समझा। उन्हे धन चाहिए था और वे
धन लूटते रहे। हमारा समाज आर्थिक दृष्टिकोण से आत्म-निर्भर था एवं हमारी
वर्ण-व्यवस्था के चलते हमारा आर्थिक ढाँचा काफी सशक्त था। भारत की अधिकांश
जनसंख्या प्रारम्भ से ही कृषि पर आधारित
रहने के कारण अन्य पेशे के लोगों के लिए भी हितकर रही है। कारण, संयुक्त परिवार की
प्रथा में रहने के कारण अन्य पेशे जैसे-कारीगरी, पंडिताई (यजमानी), महाजनी आदि वाले लोगों को भी खाने के मद में अनाज
इत्यादि पर विशेष व्यय नहीं करना पड़ता था। अतः लोकहित व राज्यहित में हुए कराधान
के बोझ को खुशी से उठाया जाता था।
कृषि कार्य निसंदेह अत्यंत ही कठिन कार्य है। उस जमाने में आज की तरह
मशीने भी उपलब्ध नहीं थीं जिससे कृषि कार्य को आसानी से किया जा सके। फिर भी जीवन
की विभिन्न कठिनाइयों के बीच आम-अवाम खुश थे। अवाम की इस खुशी ने मुस्लिम-शासकों
को अधिक प्रभावित किया। ग्राम स्वावलम्बी थे तथा केन्द्रीय नेतृत्व के बारे में
चिन्तन नहीं करते हुए कार्यरत थे।
दूसरे विदेशी
शासकों की तरह तुर्की, पारसी, अरबी और बाद में
मुगलों ने भी भारत पर शासन किया। ऊँचे पदों पर उच्चवर्ण को प्र्राथमिकता दी गयी।
निम्नवर्गीय हिन्दू अथवा मुसलमानों को कभी भी पद व प्रतिष्ठा अथवा नौकरियों में
प्राथमिकता नहीं मिली। धर्मांतरित छोटी जाति के मुसलमानों जो मूल रूप से हिन्दू ही
थे, को सामान्य हिन्दू
से अलग करना मुश्किल हो रहा था।
वर्ण-व्यवस्थानुक्रमित हिन्दूओं की भाँति हिन्दू एवं मुसलमानों के
अपने-अपने अलग-अलग समान अस्तित्व वाले धार्मिक, कानूनी एवं साहित्यिक संस्थान थे, जिनके माध्यम से जनता को धर्म, कानून एवं शिक्षा के क्षेत्र में प्रशिक्षित किया जाता था। इस क्रम में
राज्य के द्वारा किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। संस्थान मुख्यतः
स्वायत्तशासी थे एवं आम-आवाम के लिए ही थे।
यद्यपि कि सामान्य भावना
हिन्दूत्व एवं हिन्दू संस्कृति से ही ओत-प्रोत थी, तथापि मध्य एशिया के विद्वान मुसलमानों ने निरंतर
अपने स्वार्थ-लोलुप एवं धर्मान्धता पूर्ण प्रयासों के द्वारा इस्लाम-धर्म एवं
कानून तथा जीवन-जीने की कला को यहाँ के आवाम पर जबरन थोपना चाहा। मुस्लिम संविधान
के अनुसार सम्पूर्ण विश्व दो भागों - (1) दर-ऊल हब और (2)
दर-ऊल इस्लाम में
बँटा है। दर-ऊल इस्लाम इस्लामी सम्प्रभुता से प्रेरित एक ऐसा राष्ट्र है जहाँ
इस्लामी कानून स्थापित है। दर-ऊल हब का अर्थ है
युद्ध से तपी हुई वो भूमि जहाँ इस्लामी सत्ता स्थापित न हो। इसी परम्परा को
मुगल शासनाध्यक्षों ने ग्रहण किया एवं उससे सम्बन्धित इस्लामी कानून शरीयत को
मार्गदर्शक बनाया।
तुर्की शासक
नगरीय-जीवन को प्राथमिकता देते थे। मुख्यतः वे नगरीय लोग ही थे। शहरों और राज्यों
में हिन्दूओं एवं मुसलमानों की मिली-जुली आबादी निवास करती थी। राजा व प्रांतीय
शासकों के द्वारा ही लोगों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान-दण्ड प्रतिष्ठापित किए
जाते थे।
सामान्य हिन्दूओं और मुस्लिम जनता में फर्क करना मुश्किल था तथा बहुत से
मामलों में उनके जीने का ढंग, चाल-ढाल, कद-काठी, बोली आपस में मेल
खाती थी। यदि हम हिन्दू एवं मुसलमान, दोनों वर्गों के आर्थिक व समाजिक रूप से पिछड़े लोगों की ओर दृष्टिपात
करें तो हम देखते हैं कि वे प्रायः एक-दूसरे पर निर्भर करते थे। शादी-ब्याह, पर्व-त्यौहारों
जैसे कई अवसरों पर हिन्दू,
मुंसलमान एक-दूसरे
से सेवा लेते पाए गए थे/हैं। इस प्रकार एक का पर्व अथवा एक के घर में शादी-ब्याह, दूसरे के लिए रोजगार प्रदान करती हैं।
यही वह मौका है जहाँ ‘‘भारत में धर्म-निरपेक्षता’’ की झलक दीख पड़ती है। दूसरे शब्दों में, यदि हम कहें कि हिन्दू मुसलमान के बीच स्थित यह
भाईचारे एवं सद्भाव का व्यवहार ही भारतीय धर्म निरपेक्ष समाज का ज्वलंत उदाहरण है
तो शायद कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
पर धीरे-धीरे अपने-अपने जन्माधारित जाति व्यवस्था के कार्यनिर्धारण की
प्रकृति के कारण आबादी का एक बड़ा भाग अशिक्षा एवं आर्थिक तंगी के तहत कारखानों में
अथवा गुलामों के रूप में समाज में जीवन-यापन करने लगा। जैसे-जैसे उनके भीतर जागृति
आयी, शिक्षा के प्रति
लोग जागरूक हुए तथा अपनी आर्थिक विपन्नता में उन्होने कमी लायी। इसी समाज में कुछ
ऐसे लोग भी थे जो इन गरीबों व असहायों को अपना गुलाम बनाकर रखते थे अथवा अपने
कारोबार में सेवावर्गीय के रूप में रखा करते थे। वैसे कुछ राजा अथवा शासक जो आम
आवाम के कल्याण के लिए कार्य न करके अपनी अय्याशी व स्वार्थ सुखों के भोग में
लिप्त रहे। उन्हें ‘‘शोषक’’ की संज्ञा से
तत्कालीन शिक्षाविदों द्वारा विभूषित किया गया।
मुसलमान हुक्मरानों ने कर के रूप में अनाज एवं धन हिन्दू जमींदार
राजाओं एवं अपने अधिकारियों के द्वारा जनता से प्राप्त करने की प्रक्रिया की
शुरूआत की, जिसे बाद में
अंग्रेजों ने भी चालू रखा। संग्रहित कर राशि का कुछ भाग हिन्दू राजव्यवस्था में
हिन्दूओं के शिक्षण संस्थान एवं विद्यालयों को दीया जाता था। मुस्लिम हुक्मरानों
के राज्य में ये मुमकिन न हो सका, जिससे हिन्दूओं के उच्च शिक्षा के संस्थान लगभग बन्द हो गये। रही-सही कसर
अंग्रेजों ने अपने राज्य में पूरी कर दी तथा हिन्दूओं के शिक्षण संस्थान जिसपर
उनके समाज का आधार एवं संस्कृति टिकी हुई थी, पूरी तरह ध्वस्त हो गए तथा एक नये तरीके की व्यवस्था ने जन्म लिया।
हिन्दूओं और मुसलमानों ने साथ-साथ रहते-रहते एक-दूसरे के बहुत सारे
अवगुणों और कुप्रथाओं को ग्रहण किया तथा उसे अपने व्यवहार और जीवनव्यवस्था में
सम्मिलित किया। औरतों की स्थिति ठीक नहीं थी । शराब पीना, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, जौहर, सती तथा दासप्रथा
सभी ने उस काल में जन्म लिया तथा प्रचलित हुई।
कालान्तर में भारत
अंग्रेजों की दासता से स्वतंत्र तो अवश्य हुआ किन्तु तब तक जिन घिनौने अमानवीय
व्यवहारों की दासता स्वीकार कर चुका था, उससे स्वयं को न तो यहाँ का शासक वर्ग, न ही शोषित वर्ग मुक्त करा सका। अतः स्वतंत्रता के
बाद भी अपनी रूढ़िवादी प्रकृति के कारण इस्लामी कानून ज्यों के त्यों बने रहे।
सम्पन्न मुसलमानों ने पाकिस्तान में रहना पसंद किया एवं तत्कालीन भारतीय शासकों ने
उच्चवर्गीय मुसलमानों को ही भारत में विभिन्न इस्लामी संस्थाओं में पद धारक बनाया।
इस प्रकार व्यक्तियों के निजी तुच्छ स्वार्थपूर्ति का सिलसिला पूर्ववत् जारी रहा।
निम्न वर्गीय मुसलमानों को स्थिति आजाद भारतवर्ष मेें आज भी वैसी ही है तथा
मुस्लिम संस्थान इनके हितों पर ध्यान नहीं देते। परिणामस्वरूप उनकी हालत बद् से
बद्तर होती जा रही है।
आजाद भारत मे आज भी
अलग-अलग धार्मिक संस्थान,
कानून एवं व्यवस्था
चल रही है जो यह दर्शाती है कि हम अपने को
अभी भी गुलाम समझते हैं।
संस्कृत भारत की
मूल साहित्यिक भाषा है जो आर्यों के उच्चतम् विचारों एवं उपलब्धियों को दर्शाती
है। हमारे पूर्वजों ने इसी भाषा में अपने कार्य, अनुसंधान और उपलब्धियों का वर्णन किया है।
कालान्तर मे यह भाषा जनसाधारण के उपयोग लिए जटिल तथा साधारण बोल-चाल के लिए
अनुपयुक्त पाई गई।
विद्वानों के
मतानुसार हिन्दी की उत्पत्ति 7 से 10 शताब्दी के बीच
राजस्थान में हुई। हिन्दी साहित्य के प्राथमिक विकास एव संवृद्धिं का यह प्रमुख
केन्द्र था। हिन्दी साहित्य अपने
बाल्यावस्था से निकलकर 1206 ई॰ मेेेेें यहाँ
विकसित हुआ और फला-फुला तथा ‘‘पृथ्वीराज रासो’’
नामक पुस्तक इसके
संवृद्धि का मूल आधार बनी। हिन्दी या हिन्दूस्तानी ने दो भाषाओं को जन्म दिया -
उर्दू और हिन्दी। हिन्दी और उर्दू का विकास 13 शताब्दी और 14 शताब्दी के मध्य
में हुआ। दोनों भाषाओं की शब्दावली एवं व्याकरण एक है, लेकिन इनकी लेखन
लिपि में भिन्नता है। हिन्दी में नागरी या देवनागरी तथा उर्दू में फारसी अरबी लिपि
का प्रयोग हुआ। दोनों भाषाओं की उत्पत्ति का मूल आधार दिल्ली के आसपास प्रचलित
लोकप्रिय बोली कोराबोली है। उर्दू भाषा के उच्च शब्दावली में फारसी तथा अरबी का
सम्मिश्रण एवं हिन्दी में मुख्य रूप से भारतीय शब्दों का प्रयोग किया जाता है। दोनों
भाषाओं का विकास दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आस-पास हुआ।
परम्परागत उर्दू
कविताओं का साहित्यिक विकास गजल, गशीदा, भाषीया, रेवती और नज्म के
रूप में हुआ। उर्दू भाषा के विकास ने दो सशक्त राष्ट्रीय विचारधाराओं को जन्म दिया
(1) हिन्दू सन्तों और
मौलवियों ने इसे एकता और सामंजस्य स्थापित करने का आधार बनाया तथा इसे
प्रचार-प्रसार का साधन बनाया। (2) इस्लाम से प्रभावित भक्ति विचारधारा वाले धार्मिक संतों ने एकता और
समानता को बढ़ावा दिया।
उर्दू साहित्य का विकास मुगल राज्य के बाजारों, दलानों, आश्रमों तथा अन्य
स्थानों में हुआ। दोनों भाषाओं के विकास ने मिलकर एक ऐसा समाँ बाँधा जो इस महान
राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति का द्योतक है। ये दोनों भाषाएँ बोलचाल एवं लेखन
में सरल थी इसलिए जनसाधारण के बीच लोकप्रिय और प्रचलित हुई।
मुसलमानों के आगमन के पूर्व भारतवर्ष, का नामकरण छोटे छोटे राजवाड़ों के नाम पर या भारत था। इस्लामियों को इस
भूमि की कला,कार्य-शैली, संस्कृति एवं
सभ्यता इतनी आयी कि उन्होंने अपनी मूल संस्कृति का समावेश भी इसी में कर दिया और
इस महान भूमि के अनुरूप एक नई उन्नत सभ्यता एवं संस्कृति को जन्म दिया जिसका
नामकरण उन्होनें हिन्दूस्तानी या हिन्दू सभ्यता के नाम से किया। इसके पूर्व यह
सभ्यता सनातन धर्म या सभ्यता के नाम से जानी जाती थी।
भारतवर्ष में
मुसलमानी मौलवियों का आगमन मुस्लिम शासन काल के पूर्व हो चुका था। चिस्ती सिलसिला
जिसको मानने एवं आस्था रखने वाले हिन्दूस्तान में सबसे ज्यादा हैं, यहाँ शेख
मोइनुद्दीन के द्वारा प्रचलित की गई। वे भारतवर्ष आकर अजमेर शहर में बस गए, जो अपने समय में
चौहान राजाओं का प्रमुख दुर्ग एवं हिन्दू धार्मिक स्थल था। उनकी सरल पवित्र और
भक्तिपूर्ण जीवन ने हिन्दूओं और मुसलमानों को काफी प्रभावित किया। वे शाकाहारी थे, जो अपना
जीविकोपार्जन किसी हिन्दू द्वारा प्राप्त एक बीघा जमीन को सामान्य खेतिहर मजदूर की
तरह जोतकर करते थे। उनके अधिकांश शिष्य उनके द्वारा शिक्षित सर्वधर्मी जीवनदर्शन
में आस्था रखते थे। उनके तीन प्रमुख शिष्यों ने इस सिलसिला को पूरे भारतवर्ष में
प्रचारित और प्रसारित किया। निजामुद्दीन (1325 ई॰) के निजामुद्दीन प्रशाखा को पूरे भारतवर्ष के मुसलमानों के बीच शीर्ष
स्थान मिला तथा पूरे राष्ट्र में चिस्ती स्थान का, जमाएते खाना और तख्यैआह का जाल फैल गया।
चिस्ती सिलसिला
सर्वधर्मी, सत् (ब्रह्म), ब्रह्मदत-उल-वजूद, जीवों में समानता, जिसकी सारभूत
व्याख्या हिन्दूओं के उपनिषद से ली गई थी, के मानने वाले थे। समान्य समाजिक बोलचाल में इनका सारार्थ, मनुष्यों के बीच
समानता, सभी धर्मों के बीच
एकता और धार्मिक पक्षपात एवं कट्टरता से आजादी थी। चिस्ती संत ज्यादातर उदारवादी
विचारधारा के थे तथा आर्यों के विचारों से प्रभावित थे। चिस्तियों ने नदी के समान
उदारता, सूर्य के तरह स्नेह
और पृथ्वी की तरह अतिथि-सत्कार करने की हिमायत की थी।
उन्होंने बहुत सारे
हिन्दू धार्मिक तरीकों को अपनाया जैसे, नये शिष्यों मुल्लाओं को शामिल होने से पहले सिर मुडवाना, खाना इकट्ठा करने
के लिए जाबिल (कटोरा), आगंतुकों को पानी
देना, धार्मिक प्रवचन
इत्यादि। चिल्लाई मुकुस (अधोमुखी ईकतालिस दिनों की क्रियापद्धति) में शेख फरीद्दीन
गजई शक्कर ने जो विधान अपनाया था वो अर्द्धमुखी साधुओं से ली गई थी तथा श्वास
(साँस) नियंत्रण की क्रिया (हव-ई-दम) हिन्दू योगियों के द्वारा प्राप्त की गई योग
प्रणाली थी। चिस्ती मौलवी हिन्दूओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव के सख्त खिलाफ थे
एवं प्रशासन करने में समता और समानता के
सिद्धान्त के जोरदार समर्थक थे। शाह महीबूल्लाह (इलाहाबाद के) ने एक बार ‘दारा शिकोह’ को उपदेश देते हुए
बताया कि प्रशासन के मामले में हिन्दू मुसलमान में भेदभाव इस्लाम के नियमों के
खिलाफ है। उन्होंने इसे समझने के लिए कुरान के कुछ छंदों को भी पढ़कर सुनाया।
‘सत्तारी धार्मिक सिलसिला’ का विकास भारत वर्ष
में 15वीं और 16वीं शताब्दी में
हुआ । यह उस समय की तीन मुख्य धार्मिक विचारधाराओं में से एक था। सत्तारी संतों ने
हिन्दू और मुसलमानों की सोच एवं धार्मिक प्रथाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने की
कोशिश की तथा उसे एकता के सूत्र में पिरोया। कुछ संतों ने संस्कृत की विधिवत्
शिक्षा ली तथा हिन्दू धार्मिक विचारों से अवगत हुए। उन्होंने हिन्दू साधुओं के बीच
रहकर बहुत सारी गुप्त विद्या एवं यंत्र विद्या का अध्ययन किया तथा उसे मुसलमान
मौलवियों एवं समाज के बीच प्रचलित किया। उनके मान्यतानुसार मुसलमानों के रब और
हिन्दूओं के ऊँ का एक ही अर्थ है। यह भक्ति विचारधारा के प्रभाव को दर्शाता था तथा
हिन्दुओं के बीच काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय हुआ।
मध्यकालीन युग (1206 ई॰-1761 ई॰) के हिन्दू
व्यग्र एवं आत्मदर्शी हो गए। अपनी मातृभूमि को किसी दूसरे परदेशी धर्म वाले शासकों
के हाथ में गुलाम देख आत्मग्लानि में डूब गए। देश विभिन्न जाति, धर्म और वर्गों के
साथ विभिन्न विचारों में बँटा हुआ था। यह हिन्दूत्व के आधार एवं मूलभूत
सिद्धान्तों से बिल्कुल विपरीत था एवं उन उच्च विचारों और चिन्तनों के विरूद्ध था, जिसकी संरचना हमारे
महान पूर्वजों एवं साधु-संतों ने की थी। अन्ततः हिन्दूओं की श्रद्धा, विश्वास और विचारों
में सहनशीलता और आत्मविवेचन के विलक्षण गुण ने शान्तिपूर्वक जीने की एक नई पद्धति
का ईजाद किया। भक्ति युग ने जन्म लिया तथा भगवान में लीन होकर आत्मसमर्पण करने की
भावना को बढावा मिला।
इस प्रथा ने ऐसे
संतों को जन्म दिया जिन्होंने अपना पूरा जीवन ईश्वर की खोज में समर्पित कर दिया।
भक्ति प्रथा ने अपना सार्थक प्रभाव समाज के सभी जातियो, समुदायों एवं
वर्गों पर छोड़ा। ऊँच-नीच,
ज्ञानी-अज्ञानी, राज्यकर्मचारी-आमजनता
,सभी वर्गों में
ज्ञान और पारलौकिक विचारों को प्रवाहित करने के लिए एवं इसका प्रचार करने के लिए
संतों ने अपने दरवाजा हमेशा खुले रखे। उस युग के साधु संतों ने एक ऐसे गैर
पारम्परिक रीति-रिवाजों,धार्मिक प्रथा से
परे तथा जाति वर्ग विभाजित,
ऊँच-नीच आदि
बुराइयों को न मानने वाले धार्मिक संप्रदाय को जन्म दिया, जिसे समाज ने बखूबी
स्वीकारा तथा अपनाया।
इस प्रकार सनातन या हिन्दू व्यवस्था के मूल सिद्धान्तों पर आधारित एक नई
हिन्दूत्व जीने की पद्धति ने जन्म लिया जिसे समाज के हर वर्ग में सराहा एवं अपनाया
गया।
इस युग के अधिसंख्य संत पौराणिक सगुण विचारधारा के साधक थे जो ईश्वर को
कई रूपों और गुणों में पूजते थे। उनके विचार से भगवान के कई नाम और अवतार हैं, जैसे राम एवं
कृष्णष्और उनकी आत्मा मन्दिर और मूर्तियों में निवास करती है। दूसरे पंथ के संत निर्गुण विचारधाराओं को मानने
वाले थे जो निराकार भगवान की पूजा करते थे। उनकी मान्यता थी कि भगवान दयालु और
सर्वव्यापी हैं और भक्तों के पूजन से प्रसन्न होते है। इन दोनों ही विचारधाराओं का
मूल स्रोत वैदिक दर्शन था,
लेकिन इसमेें कोई
शक नहीं कि इस्लामी विचारों ने उनमें नये रूप और शक्ति का संचार किया था।
भक्ति विचारधारा की
उत्पत्ति भारत के दक्षिणी भाग में हुई जहाँ 7वीं - 9वीं शताब्दी में
तमिल साधु संतों की शिक्षा से यह प्रकट हुई। इसे संशोधित कर रामानुज और उनके
शिष्यों ने 12वीं शताब्दी में
इसे पूरे भारतवर्ष में प्रसारित किया। हिन्दूत्व के सच्चे अर्थों में इस धार्मिक विचारधारा
ने धर्म, जाति और वर्गों की
सारी सीमायें तोड़ते हुए हिन्दू समाज को एकता एवं समानता के सूत्र में पिरो दिया।
इस विचारधारा के ज्ञानी संतों मेेें रामदास चमार, कबीर बुनकर, छनना जाट, सेना नाई, पीपा राजपूत , रामदास और चैतन्य
महाप्रभु के नाम प्रमुख है। कबीर रामदास के सबसे प्रिय शिष्य थे और अपने काल के
सबसे ज्ञानी एवं प्रसिद्ध संत थे। वे हिन्दू माँ के सुपुत्र थे जो वाराणसी के एक
मुस्लिम बुनकर के यहाँ पले-बढ़े ।वेे अपना जीवन-यापन कपड़ा बुनकर चलाते थे तथा वे
निर्गुण विचारधारा को माननेवाले थे। उन्होंने ईश्वर को विभिन्न नामों जैसे राम, रहीम से पुकारा एवं उनकी पूजा-अर्चना की। वे जाति प्रथा, धार्मिक विभाजन के
कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भाईचारा, सर्वधर्म, साधारण जीवन-यापन, नैतिक और उच्च
विचारों की हिमायत की। दूसरे सभी संतों ने भी इस भक्ति विचारधारा को बढ़ावा दिया।
पूरे भारतवर्ष में इस धार्मिक विचारधारा का प्रचार- प्रसार दोहों, भजनों आदि
जनश्रुतियों के माध्यम से हुआ।
ये विचारधारायें हिन्दूत्व के सारार्थ को
प्रतिबिम्बित करती थी एवं वे एक राष्ट्रवादी विचारधारा के रूप में सामने आई, जिसने लोगों के
दिलों को जोड़कर एक सर्वधार्मिक प्रगतिशील समाज की संरचना की।
गुरू नानक (ई॰ 1469-1539),
सिक्ख पंथ के
जन्मदाता एवं एक निर्गुण विचारधारा के संत थे। वे जाति रहित एवं रीति रिवाजों से
परे एकेश्वरवादी (अद्वैत) और उच्च अध्यात्मिक विचारों के उपदेशक थे, जो कबीर की
विचारधारा को दर्शाते थे। इनके शिष्य अपने को सिक्ख (संस्कृत शिष्य अनुयामी पाली
सिक्ख अनुदेशक) पुकारते थे ज्न्हिोंने एक नए पंथ की स्थापना की। गुरू अंगद ने गुरू
नानक की गुरूवाणी का संग्रह कर एक पुस्तक लिखी जिसे गुरूमुखी कहा जाता है, जो सिक्खों का
धार्मिक ग्रन्थ है। सिक्ख पंथियों में हिन्दूत्व का सार राष्ट्रप्रेम कूट-कूट कर
भरा हुआ था। सिक्खों ने बाद में अपने को संगठित कर एक ऐसी जूझारू एवं लड़ाकू सेना
का निर्माण किया जिसने विदेशी आक्रमणकारियों के दाँत खट्टे किए।
सिक्खों की
हिन्दूत्व भावना का सही अर्थ में पालन का तात्पर्य उनकी ऐसी एकता एवं सर्वांगीण
विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका से है, जो सिक्खों द्वारा वर्षाें से पंजाब में हो रहे विकास के रूप में
प्रतिबिम्बित होती है। भारत में पंजाब स्थित सिक्ख समुदाय का विकास भारतीय आर्थिक
विकास के क्रम में एक ज्वलन्त उदाहरण है।
हिन्दू और मुस्लिम
राजाओं के दरबार में आर्थिक शास्त्रार्थ और पौराणिक विषयों का विस्तार एवं विकास
कविताओं और संगीत की प्रतियोगिताओं के माध्यम सें हुआ। उच्च चिन्तन एवं विचारों
में, इस्लाम के अध्यात्म
ने सिरमौर हिन्दू धर्म गुरुओं जैसे चैतन्य महाप्रभु, कबीर और गुरू नानक आदि संतों को बहुत प्रभावित
किया। मुसलमान जनता, मौलवी,एवं कवि राधा, कृष्ण या काली माँ
की स्तुति सार्वजनिक स्थलो पर बिना किसी
रोक-टोक के करते थे।
जो मुस्लिम या ‘‘इस्लाम धर्म’’ के अनुयायी भारत
आकर यहाँ के निवासी हो गए,
उनके हृदय में
राष्ट्र के प्रति असीम प्रेम की भावना ने जन्म लिया। उन्होंने भारतीयता एवं
राष्ट्रीयता की सच्ची अवधारणा को समझा, जिसका परिणाम हुआ कि वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में सहर्ष भाग लेते थे।
मुस्लिम नेतृत्वकर्त्ताओं औरं सिरमौर राजनेताओं में विशेषकर ‘अकबर’ ने भारतीय एकता एवं
सहिष्णुता तथा वैचारिक व्यापकता को समझा एवं इसकी संस्कृति, प्रेम, दया तथा राष्ट्रीय
कला के प्रति इतने मुग्ध हुए कि वे ‘हिन्दू’ एवं ‘इस्लाम’ धर्मों को एक सूत्र
में पिरोने का सजग प्रयास करने लगे। दोनों के रीति-रिवाजों में एक-दूसरे के प्रति
ऐसा तारतम्य स्थापित हो गया कि एक-दूसरे के बिना रिक्तता का अनुभव आभासित होने
लगा। उदाहरणस्वरूप, तत्कालीन मुसलमान
शासक प्रत्येक वर्ष चंन्द्र और सूर्य पंचॉंगानुसार (कैलेण्डर) ‘जन्मोत्सव’ मनाने में विशेष
रूप से रूचि लेते थे। इस अवसर पर वे अपने हिन्दू साथियों एवं परिचितों, यहाँ तक कि आम-अवाम
को भी सहभागी बनाने में नहीं चूकते थे। इसी कारण दशहरा, दीपावली एवं होली
जैसे त्यौहारों में हिन्दू के साथ-साथ मुसलमान तथा ईद, मुहर्रम जैसे
त्यौहारों में मुसलमान के साथ-साथ हिन्दू भी उल्लासपूर्वक भाग लेेते थे। सम्राट
अकबर के भीतर शायद दीप जागृति के प्रति लगाव हिन्दू-व्यवहारों के कारण ही हुई। यही
कारण था कि राजा के निवास-स्थान के साथ ही अन्य सरकारी स्थानों पर पर्वों व
त्यौहारों में दीप प्रज्वलन की परंपरा सी कायम हो गयी। शासकों ने सम्यक् रूप से
भारत को एक बहुवंशवादी, समरसतापूर्ण तथा
धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में जाना।
हिन्दूस्तान के
मुसलमानोें ने हिन्दूओं की शैली को अपनाया तथा उन्होंने अपनी सभ्यता ,कार्य- संस्कृति और
तौर-तरीकों को राष्ट्र के मुख्य विचारधारा हिन्दूत्व से जोड़ दिया। भारत का
सर्वधर्मी रूप तथा वहाँ रह रहे हिन्दूओं का प्रतिबिम्ब वहाँ के धर्म उनकी संस्कृति, कलात्मक व्यक्तित्व
तथा उस समय दोनों समुदायों के बीच के सम्बन्ध में दिग्दर्शित हुआ। समय के साथ और
साथ-साथ रहते हुए दोनों ने एक हिन्दूस्तानी सभ्यता के जीने के तरीको का ईजाद किया, जिसे हिन्दूत्व या
हिन्दूइज्म के रूप में जाना जाता है।
सरजमें - हिन्द के
मुसलमान इस भूमि के दर्शन,
सभ्यता और सामाजिक
जीवन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने हिन्दूओं और मुसलमानों को एकता के सूत्र
में बाँधनाष्शुरू किया। दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे के उत्सव सम्मिलित रूप से
मनाते थे। समाजिक जीवन जो प्रशासनिक व्यवस्था, आर्थिक विकास और तत्कालीन धार्मिक झुकाव को दर्शाती है, सभी ने बहुतेरे
रूपान्तर देखे तथा सभी ने हिन्दूस्तानी विचारों और जीवन के सर्वांगीण विकास को
सुशोभित किया। मुसलमानों ने हिन्दूओं की तरह जीना सीख लिया, भारत को अपनी
मातृभूमि माना, उनके खान-पान, कपड़े, आचार-विचार, कार्य- संस्कृति
एवं जीवन शैली को अपनाया। धार्मिक विभिन्नता के बावजूद उनके रोजमर्रा के कार्यों
में समानता थी। यह निःसन्देह इस वजह से था क्योंकि अधिकांशतः मुसलमान हिन्दू
धर्मांतंरित थे, जो अपनी पुरानी
आदतों एवं रहन-सहन को सहज नहीं भूल पाए
थे। बहुत सारे मुसलमान हिन्दूओं के त्योहारों को मनाते थे और आज तक कुछ मुसलमान
परिवार हिन्दू देवताओं का पूजन एवं तीज त्योहारों में सहर्ष भागीदारी करते है।
वास्तव में यह धर्मनिरपेक्षता हिन्दू धर्म एवं समाज की तस्वीर है तथा इस
प्रकार एक नए हिन्दूत्व या हिन्दू विचारधारा ने जन्म लिया। यही कारण है कि भारतीय
मूल में मुसलमान अपने को अन्य मुस्लिम देशों के भाइयों से अलग पाते हैं तथा उनके
हृदय में इस राष्ट्र एवं धरती माँ के प्रति एक असीम प्यार और श्रद्धा की भावना
विकसित हुई है। अंग्रेजों और बाद में पाकिस्तान के हुक्मरानों ने इसको बखूबी समझा
और इन दोनों सम्प्रदायों के बीच फूट डालने की भरपूर कोशिश की। अंग्रेजों ने कभी
भारतवर्ष की संयुक्त, प्रबल, सशक्त और
सामर्थ्यवान नहीं देखना चाहा था इसीलिए उन्होंने अविभाजित हिन्दूस्तान के इस्लामिक
नेताओं के कान भरना शुरू किया तथा दोनों समुदायों एवं वर्गों के बीच नफरत एवं फूट
का बीजारोपन कर दिया। बाद के दिनों में पाकिस्तानी शासकों ने भी इसको बढ़ावा दिया
ताकि उनकी सत्ता र्निविवाद बनी रहे तथा दोनों अवामों में कभी एकता एवं प्रेम न हो।
पाक हुक्मरानों को इस देश का इतिहास बखूबी पता था। इन अवामों की संस्कृति एवं
साम्प्रदायिक समानता को देखते हुए उनके हृदय में हमेशा दोनों आवामों की एकता का भय
बना रहता है। यह चिंता सजग रुप से हमेशा सताती रहती है कि कहीं दोनों मुल्कों के
अवाम जर्मनी की तरह एक न हो जाएं। एकीकरण का यह संभावित खतरा उनपर हमेशा मडराता
रहता है।
इस्लामिक हुक्मरानों ने और उनके नुमाइंदो ने इस पावन भूमि पर बसने के बाद
यहाँ की संस्कृति को परखा,
समझा और तब उनके
हृदय में इस पावन पवित्र भूमि के प्रति असीम आत्मिक प्रेम ने जन्म लिया। उन्होंने
इस राष्ट्र के आत्मदर्शन एवं राष्ट्रीय भावना को समझा तथा वशीभूत होकर खुद-ब-खुद
इससे गहरे जुड़ते चले गए।
एक मजबूत एवं उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए यह परम आवश्यक है कि इसके
नागरिकों में एकता और सद्भावना हो तथा उन्हें अपनी मातृभूमि से आत्मिक प्रेम और
लगाव हो। कोई भी राष्ट्र तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक उसकी जनता में राष्ट्र
के प्रति असीम श्रद्धा, राष्ट्रप्रेम और
राष्ट्रभक्ति जागृत न हो। हमारे पूर्वजों ने हमेशा ही एक धर्म-निरपेक्ष, नैतिक तथा एकीकृत
समाज की संरचना का भगीरथ प्रयास किया तथा सबों को एक प्रगतिशाील सद्भावनापूर्ण, सशक्त और संस्कारी
समाज के रूप में एकत्रित कर संगठित करने की कोशिश की है।
भारतीय समाज ने कालांतर से ही यह सिद्ध किया है कि हिन्दूत्व या
हिन्दूईज्म ही इस राष्ट्र की अन्तरात्मा एवं जीवन पद्धति है। इससे धर्म, जाति और वर्गों के
रूप में इस को विभाजित करने के प्रयास की हमेशा ही उपेक्षा की है तथा उन तत्वों को
हमेशा उचित सबक सिखाया है। मैं एक हालिया जीवंत उदाहरण विचार-विमर्श एवं विवेचना
के लिए पाठकगण के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सन् 1989 में तत्कालीन जनता
दल के श्री वि॰प्र॰सिंह के प्रधानमंत्रीत्व में एक नई शासन व्यवस्था भारतवर्ष मे
स्थापित हुई। तत्पश्चात आरक्षण से संबंधित मंडल कमीशन लागू किया गया जिसने
सम्पूर्ण भारतीय समाज को अगड़ी एवं पिछड़ी दो जातियों में विभाजित कर दिया। इतना ही नहीं
आपसी सद्भावनारूपी बीजमंत्र को भी विभिन्न जातियों के आधार पर बाँटने की कोशिश
मौकापरस्त राजनेताओं द्वारा की गई और उसका नेतृत्व श्री सिंह ने किया। सामाजिक
प्रेम व सहिष्णुता में खलल डालने का परिणाम यह हुआ कि श्री सिंह फिर कभी भारतीय
राजनीति में राष्ट्र नेता बनकर नहीं उभरे। जनता दल रूपी पार्टी भी बिखर कर
अस्तित्वहीन हो गयी। किन्तु हिन्दूत्वरूपी राष्ट्रीयता के साथ छेड़-छाड़ करने का
अंजाम अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के रूप में हुआ। सभी जातियों एवं वर्गोंं ने
एक जुटता का परिचय दिया। यहाँ तक कि मुसलमानों ने भी साथ दिया। हालाँकि आन्दोलन
राम मंदिर निर्माण का था,
परन्तु यह एक
सांस्कृतिक-धार्मिक आन्दोलन के रूप में उभरा, जिसने हिन्दूत्व या हिन्दूइज्म रूपी राष्ट्रीय विचारधारा को पुनर्जन्म
दिया। हालॉकि यह आन्दोलन लोकसभा की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भा॰ज॰पा॰ के द्वारा शुरू
किया गया था, पर चूँकि भगवन् राम, जो नैतिकता एवं
शासन व्यवस्था के विचार से हिन्दू दर्शन के सच्चे आराध्य है से सम्बन्धित था, अतः यह एक
राष्ट्रीय व हिन्दूत्व आन्दोलन के रूप में उभरा, जिसने पूरे राष्ट्र के नागरिकों को एकत्रित एवं
संगठित करने में सक्रिय भूमिका निभायी, जो कि दसवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम से स्पष्ट प्रतिबिम्बित हुआ। फलतः
भा॰ज॰पा॰, जो समान
आचार-संहिता एवं कानून की वकालत करता थी, सबसे बड़े राजनैतिक दल के रूप में भारतीय राजनीति के पटल पर उभरी।
हमारे पूर्वजों ने भारतवर्ष को ऐसी प्रगतिशील विचारधारा दी, जिसने इस महान
राष्ट्र का एकीकरण कर सुनिर्माण किया। यह विद्वानों और ज्ञानियों के बीच एक विचार
एवं विवाद का विषय है कि हिन्दी और हिन्दू एक धर्म है या एक भौगोलिक परिधि में
निवास करने वाली संस्कृति। हमारे पूर्वजों ने अपनी धार्मिक व्यवस्था को धर्म या
सनातन धर्म के नाम से पुकारा। अरबियों और फारसियों ने इसे सरजमें हिन्द या
हिन्दूस्तान नाम दिया तथा इसमें बसे नागरिकों को हिन्दू नाम से सम्बोधित किया।
हमारे माननीय उच्चत्तम न्यायालय के अनुसार हिन्दूइज्म या हिन्दूत्व जीवन की एक पद्धति है, जिसमें यहाँ के
निवासियों की संस्कृति एवं सभ्यता झलकती है। हमारे पूर्वजों ने हिन्दूत्व या
हिन्दूस्तानी तरीके ये की संरचना इस राष्ट्र की जनता से सांस्कृतिक एवं धार्मिक
भेदभाव मिटाकर उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने के लिए किया। इस एकता का सदुपयोग
उन्होंने राष्ट्र को एक आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित करने के लिए किया। इसीलिए
हिन्दूत्व को एक राष्ट्रवादी आन्दोलन या विचारधारा कहा गया है।