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                                             भारतीय शिक्षा प्रणाली 

भारतीय समाज प्राचीन काल से ही अपनी प्रजा या समाज को शिक्षित करना अपना मौलिक कर्तव्य समझता था . यही वह आधार था जिस पर भारतीय संस्कृति स्थापित थी . शिक्षा का अर्थ मनुष्य की रचनात्मक मानसिक विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त नियम, प्रणाली  और व्यवस्था विकसित करना था . ये  प्रणाली इस सिद्धान्त पर आधारित थी कि मनुष्य के विकास का अभिप्राय उसकी बुद्धि एवं स्मरण शक्ति का स्वाभाविक सामर्थ्य और रचनात्मक विकास है. संसार के सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध विश्वविद्यालय मे प्राचीन भारत के नालंदा और तक्षशिला आदि विश्वविद्यालय संपूर्ण संसार में सुविख्यात थे. इन विश्वविद्यालयों में देश ही नहीं विदेश के विद्यार्थी भी अध्ययन के लिए आते थे.

 आज की शिक्षा प्रणाली  को प्राय: लोग मैकाले शिक्षा प्रणाली के नाम से पुकारते हैं. मैकाले के शब्दों में: मैं भारत के कोने कोने में घुमा हूँ. इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था उसकी संस्कृति को बदल डालें. उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़तम करने और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को लागु करने का प्रारूप तैयार किया

बच्चे किसी भी देश की सर्वोच्च संपत्ति हैं. वे संभावित मानव संसाधन है उनका  सम्पूर्ण विकास करके ही राष्ट्र का निर्माण हो सकता है . शिक्षा एक आदमी के जीवन में ट्रान्सेंडैंटल महत्व का है. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा समय की मांग है. बच्चों को गुणावत्तायुक्त शिक्षा देने के लिए शिक्षक और समाज के हर शिक्षित व्यक्ति को आगे आने की जरूरत है. तभी देश का सर्वागीण विकास होगा. बच्चे अपने समाज और संस्कृति को ग्रहण करते हुए बड़े होते है समाज व संस्कृति उनके सीखने के स्वभाव को निर्धारित करती है. बहुत हद तक उसके इस स्वभाव से निर्धारित होता है कि बच्चा क्या सीखेगा और किन बातों को सीखना उसके लिए आसान होगा. एक शिक्षक के लिए यह महत्वपूर्ण बातें हैं संस्कृति और शिक्षा के अत:संबंध में भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यह एक साधारण बात हैअगर बच्चे को उसकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए या मार्गदर्शन किया जाए तो वह उसकी रुचि के अनुसार चुने गये विषय में अधिक पारंगत होगा. इसके बजाय बच्चे को उसकी मातृभाषा में न पढ़ाया जाए और अन्य भाषा में मार्गदर्शन किया जाए तो उसकी रुचि विषय की जानकारी हासिल करने से हटकर अन्य भाषा को समझने में लग जाएगी. इसमें कागजी ज्ञान के बजाय व्यवहारिक ज्ञान और प्रयोगों को महत्व दिया जाय शिक्षा में सदाचार का पाठ हो ज्ञान का प्रकाश हो तथा आम आदमी को ज्ञान के निकट ले जायें. 


आज की शिक्षा बच्चों को पश्चिमी सभ्यता की ओर ले जा रही है और वे अपने संस्कार और संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं . यह शिक्षा उन्हें स्वछंद और एकाकी जीवन की और ढकेल रहा है , जिससे वे अपने वर्षों पुरानी संस्कृति को भूलते जा रहे है और संयुक्त परिवार टूटते जा रहे हैं . लोगों में आपसी लगाव और सदभावना की कमी होती जा रही है . आज एक ऐसे शिक्षा प्रणाली की जरूरत है जो भारतीय संस्कृति और संस्कारों पर आधारित हो और जिसमे व्यवहारिकता और आधुनिक ज्ञानों का  सम्यक समावेश हो .

 

प. दीनदयाल उपाध्याय जी

 

                             प. दीनदयाल उपाध्याय जी  और भारतीय राष्ट्रवाद

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी , प. दीनदयाल उपाध्याय जी  की हत्या सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी. उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय ( आज का प दीनदयाल उपाध्याय ) स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया. भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष  में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा  का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया. अनाकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्चकोटि के दार्शनिक थे।किसी प्रकार भौतिक माया-मोह उनको छू तक नहीं सका. वे न देश के प्रधानमंत्री थे, न राष्ट्रपति फिर भी दिल्ली में उनके पार्थिव शरीर को अपने अंतिम प्रणाम करने पांच लाख से भी अधिक जनता उमड़ पड़ी थी. तेरहवीं के दिन प्रयाग में अस्थि-विसर्जन के समय दो लाख से अधिक लोग अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने को एकत्रित हुए थे.

 जनसंघ के राष्ट्र जीवन-दर्शन के निर्माता दीनदयाल जी का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुर्नरंचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था. दीनदयाल जी के विचारों का अध्ययन करते समय उनकी वैचारिक प्रक्रिया, जिसका आधार संस्कृति तथा धर्म है, को समझना आवश्यक है.  सस्कृतिनिष्ठा जनसंध के राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सूत्र है--

भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है. उनकी जीवन प्रणाली, कला , साहित्य ,दर्शन सब भारतीय संस्कृति है. इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है. इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा”

राष्ट्र समान्यतः राज्य या देश से समझा जाता है . राष्ट्र का एक शाश्वत अथवा जीवंत अर्थ है एक राज्य में बसने वाले समस्त जन समूह जो एक समान संस्कृति से बंधे हों ”. राष्ट्रवाद की तात्कालिक युग में यही शाश्वत परिभाषा है . इसका सजग उदाहरण इज़राइल है जो यहूदियों ( बंजारों ) का एक ऐसा समूह था जिसके पास कोई भूमि नहीं थी . द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने यहूदियों को बसने के लिए उनके मूल मातृभूमि जेरूसलम वापस दिला दिया . इतिहास गवाह है की ईसाई और इस्लाम धर्म की शुरुआत से पहले यह शहर प्राचीन  यहूदियों की राजधानी हुआ करती थी जिसे जबरन धर्म परिवर्तन के कारण यहूदियों को छोड़ना पड़ा . यहीं यहूदियों का परमपवित्र सोलोमन मन्दिर हुआ करता था, जिसे रोमनों ने नष्ट कर दिया था. ये शहर ईसा मसीह की कर्मभूमि रहा है. यहूदियों ने अपनी मातृभूमि को छोड़ा परन्तु अपनी सस्कृति नहीं छोड़ी इसलिए उनकी राष्ट्रीयता जीवित और अक्षुण रही .

   अगर जन राष्ट्र का शरीर है तो संस्कृति इसकी आत्मा है जो लोगों को जोड़े रखती है . इनमें एकता और सामंजस्य बनाये रखता है. यही वह धुर है जिस पर राष्ट्र  का सर्वागीण विकास आधारित है एक संगठित समाज / राष्ट्र ही सामर्थवान होता है जहाँ समाज की शक्ति सार्थक दिशा में राष्ट्र  के  सर्वांगीण विकास में एक जुट होती है .इसके बिना राष्ट्र का विकास अधुरा रह जाता है .  राष्ट्रवाद राष्ट्र हितों के प्रति समर्पित विचार है , जो एकतामहत्ता और कल्याण का समर्थक है , समस्त भारतीय समुदाय को समता एवं समानता के सिद्धान्तों पर एकीकरण करने का एक सतत् प्रयास हैराष्ट्रवाद समस्त नागरिकों के प्रति समर्पित विचार है जिसमें सवर्णदलित , पिछड़ेहिन्दू मुस्लिम , सिखईसाई सब सम्मालित हैं .नागरिकों को एकता के सूत्र में बॉधने एवं एक दूसरे के प्रति  सच्ची श्रद्धा – समर्पण ही राष्ट्रवाद है .   

       संस्कृति से किसी व्यक्ति , वर्ग , राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन ,रुचि , आचार विचार, कला-कौशल और सभ्यता का सूचक होता है पर विचार होता है . दो शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है . भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गज़ट) इतिहास व संस्कृति संस्करण मे यह स्पष्ट वर्णन है की हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म एक ही शब्द हैं तथा यह भारत के संस्कृति और सभ्यता का सूचक है .1995 के अपने एक आदेश से माननीय उच्चतम न्यायालय ने हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म को भारत वासियों की जीवन जीने की शैली के रूप मे परिभाषित किया है .

"संघे शक्ति कलियुगे” अर्थात कलियुग में एकता ही शक्ति है हमारी भारतीय संस्कृति से ही निकला एक दर्शन है . वसुघैव कुटुम्बकम्हमारी संस्कृति से प्रचलित दूसरा प्रमुख दर्शन  है. इसके अनुसार सारा विश्व हमारा कुटुंब है . इसलिए भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है.

              राष्ट्रवाद का सीधा संबंध विकास से हैजो किसी राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के विकास से परिलक्षित होता है विश्व के आठ बड़े विकसित देशों के समूह जी– 8 का विचार करेंतो इसमें दो ऐसी आर्थिक शक्तियाँ हैं , जिनको भारतवर्ष के साथ ही लगभग स्वतन्त्रता मिली तानाशाहों से  जापान और जर्मनी ये दो देश द्वितीय विश्वयुद्ध मे बुरी तरह तबाह हो गए थेकाम करने वाले स्वस्थ लोग काम ही बचे थे आर्थिक एवं राजनैतिक दबाव से ग्रसित थे तथा कर्ज के बोझ से दबे हुए थे . इन राष्ट्रो मे एक समानता थी , इन प्रदेशों की जनता मे राष्ट्रवाद की भावना कूट –कूट कर भरी हुई थी .  आज ये देश विकसित हैं .

 

मैं जापान का  उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहूँगा . सांस्कृतिक दृष्टिकोण से जापान और भारतवर्ष में काफी समानताएं हैं तथा जापान नें पौराणिक काल में हिन्दू जीवनदर्शन से बहुत सारी बातें ग्रहण की है . आजादी के वक्त, जापान कीं प्रति किलो मीटर जनसंख्या भारतवर्ष से लगभग दूगनी थी। प्राकृतिक, आर्थिक एवं भौतिक संपदा औरं संसाधनों में वे भारतवर्ष की तुलना में काफी कम ताकतवर थे. दोनों ही देश आज विश्व के समक्ष आर्थिक शक्ति बन कर उभरें है .जापानी राष्ट्रवाद का सजग उदाहरण वहां के कार्मिकों एवं मजदूर वर्ग के असंतोष व्यक्त करने के तरीके से उजागर होता है. जापानी लोग कभी हड़ताल कर अपने कर्मस्थली को ताला नहीं लगवाते परन्तु वे काला फीता बांध कर विरोध प्रकट करते हैं . मांग पूरी न होने पर वे अपने उच्च अधिकारियों से बातचीत बंद कर देतें हैं, इससे भी बात न बने तो वे अपने कारखानों मे दुगुना तिगुना उत्पाद करने लगते हैं. यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उत्पादन दुगनी प्रतिशत में बढ़ने से माल का उत्पादन निम्न स्तर का होता है, कारखानों की चलपूंजी एवं कलपूर्जो का तेजी से ह्रास होता है और बिकवाली पर प्रतिकुल असर पड़ता है और मिल मालिकों कि मुश्किलें कई गुना बढ़ जाती हैं . एक मजबूत एवं उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए यह परम-आवश्यक है कि इसके नागरिकों में एकता और सद्भावना हो जिससे उन्हें अपनी मातृभूमि से आत्मिक प्रेम और लगाव की भावना उत्पन्न हो, जो जापानियों के बीच मौजूद है.

        भारतीय संस्कृति ने सदियों से इस राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांध कर रखा है . ऐतिहासिक एवं पौराणिक ग्रन्थों का सम्यक् अध्ययन करें, तो यह विदित होता है कि यह सबसे  प्राचीन  है. भारतीय सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा का विस्तार एवं प्रसार प्राचीन काल में एशिया महाद्वीप के हर कोने में अंकित है.  इसमें प्रमुख रूप से चीन, थाइलैंड, मलाया, बर्मा, इन्डोनेशिया, जापान एवं जावा, सुमित्रा द्वीप की सभ्यता विचारणीय है . भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की छाप सुदूर पूर्व, पश्चिम में तथा मध्य एशिया में भी पाई गई है. इतिहास गवाह है कि भारतवासियों ने सत्ता का राजनैतिक प्रयास नहीं किया लेकिन भारतीय संस्कृति इतनी विकसित एवं उन्नत थी कि इसका स्वतः विस्तार एवं प्रसार दूर सुदूर पश्चिम देशों तक पाया गया था. इसका उजागर जावा निवासी मुसलमानों, के रामायण तथा महाभारत का विधिवत्त अध्ययन से होता हैं. वे रामायण और महाभारत  हिन्दुओं की तरह सम्मानपूवर्क  पढ़ते हैं तथा कुरान को अपना धर्म पुस्तक मानते हैं.   

         आज भारतवर्ष में कुछ राजनीतिक पार्टीयों ने राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल कर रख दी है .वोटबैंक की रणनीति के तहत यह परिभाषा अलग अलग प्रदेशों में भिन्न भिन्न तरीके से की जा रही है. आज तुष्टीकरण के नीति के तहत नफरत के खतरनाक बीज फिर से बोये जा रहें हैं, तथा वोटबैंक के रणनीति के तहत राष्ट्र को फिर से बॉटने की तैयारी चल रही है