वन्दे मातरम्
भारतवर्ष के संविधान के निर्माताओं ने वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत के रुप मे सम्मानित किया है । इस राष्ट्रीय गीत को गाते हुए हमारे असंख्य स्वतंत्रता सैनानियों ने देश केी आजादी की लडाई में अपना बलिदान दिया है। अपनी लहू से भारत की धरती को सींचा है । कई लोग इसके सम्मान की रक्षा के लिएं शहीद हुए हैं। वंदे मातरम् राष्ट्रीय गीत नहीं, एक विचारधारा है । यह स्वाधीनता एवं स्वाभिमान का गीत है। हिन्दुस्तान की संस्कृति को पुनः जागृत करने की आवाज है .वंदे मातरम् अंग्रेजियत के खिलाफ एक जन आन्दोलन है । विगत कुछ वर्षों से चन्द मुठ्ठी भर तथाकथित राजनेताओं ने इस पवित्र राष्ट्रीय गीत का खिलाफत कर अपनी वोट बैंक की स्वार्थलोलुप राजनीति को सार्थक करने में लगे हुए हैं। इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं जिसका आगाज आज हमारे समक्ष है।
वंदे मातरम् की महत्ता का एक अंश आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूॅं:-
24.01.1950 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने नवगठित भारतीय संविधान में यह घोषणा की कि .वंदे मातरम्“ जिसकी स्वतंत्रंता संग्राम में अहम् ऐतिहासिक भूमिका रही है, इसे राष्ट्रीय गान के समान दर्जा दिया जाए. सभी मुसलमान सदस्यों ने इसका समर्थन किया था.
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 1927 में कोमीला में यह बयान दिया कि इस राष्ट्र गीत से हमारे चित मे संपूर्ण अखण्ड़ भारतवर्ष की तस्वीर उभर कर आती है।
अंग्रेजों द्वारा लिखित कैम्ब्रिज के इतिहास में वन्दे मातरम् को स्वदेशी आंदोलन के चिरस्थाई उपहार (भेंट) के रूप में शब्दार्थ किया गया है।
बंगाल की जनता का भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न अंदालनों में अहम् भुमिका रही है। 1876 में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इसे लिखा था तथा 1880-82 बंग दर्शन नामक बंगाल की पत्रिका में उन्होनें धरती माता के महत्ता का बयान करने हुए इसे प्रकाशित किया था। 7.08.1905 को स्वदेशी आंदोलन की घोषणा कलकत्ता में विधिवत् हुई। इसके तुरन्त बाद 16.10.1905 को बंगाल का विभाजन लार्ड करजन द्वारा कर दिया गया। यह सर्वविदित है कि उस समय के अविभाजित बंगाल राज्य में आज का बंगलादेश भी शामिल था जहाॅं आज भी मुसलमान की संख्या अधिक है। अविभाजित बंगाल की जनता को यह विभाजन उनके सांस्कृतिक एकता पर सीधा प्रहार लगा, तथा इसका विरोध पूरे बंगाल में विहत् रैलियों और धरनाओं से किया। कलकत्ता के सडकों एवं गलियों में वहाॅं के निवासी किसी भी अंग्रेज को देखकर जोर से वन्दे मातरम चिल्लाते थे तथा इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक मंत्र के रूप में प्रयोग करते थे । अंग्रेजों ने इसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए भयभीत होकर सार्वजनिक स्थानों में ‘वन्दे मातरम्’ के बोलने पर पाबन्दी लगा दी थी।
सन् 1915 के बाद से कांग्रेस के प्रत्येक अधिवशेन की शुरूआत वंदे मातरम के गायन से होती थी तथा यह एक स्थापित परंपरा सी बन गई । पुनः 1937 मे जब काग्रेस अग्रेजों के सात प्रोविन्स में विजयी होकर आई, तो इस राष्ट्रगीत के गायन से इन सभाओं का प्रतिदिन शुभारंभ किया जाता था । मुस्लिम लीग ने इस राष्ट्रगीत के गायन के विरुद्ध आवाज बुलंद करते हुए सभी प्रोविन्सियल सभाओं से वाॅकआउट किया तथा यह तर्क दिया कि इसमें संस्कृत के शब्दों का प्रयोग हुआ है इसलिए यह ईस्लाम के विरुद्ध है ।उन्होने इन राज्यों को हिन्दूराज्य से संबोधित किया । लीग ने मुसलमानों को इस गीत से किसी प्रकार अपने को जुड़ने से मना करते हुए फतवा जारी किया। यही मुिस्लम लीग बाद में भारत के विभाजन का कारण बनी । आज मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के तहत नफरत के वही खतरनाक बीज फिर से बोये जा रहें हैं, तथा वोटबैंक के रणनीति के तहत राष्ट्र को फिर से बाॅटने की तैयारी चल रही है। ये सारी नीतियाॅं स्वदेशी विचारधारा, राष्ट्रीय भावना एवं एकता को ठेस पॅंहुचाने की कुछ राजनैतिक र्पािर्टयों कि सोची समझी साजिस है, जिसे निकृष्ट स्वार्थ एवं अहं के वशीभूत होकर कुछ राजनेता अंजाम देने पर तुले हुए हैं।आज राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की संपूर्ण अखण्ड़ भारतवर्ष की भावना का कुछ राजनैतिक पार्टीयों को थोडा भी ख्याल नहीं रहा ।भारतीय समाज आज भ्रमित और कमजोर, बैद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में है, जहाॅं गैर-भारतीयता को सेक्युलरवाद और राजनीतिक सफलता का पैमाना माना जाता है। हिन्दुत्व मूलक समाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा को ही संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
राष्ट्र की रक्षा में शहीद हुए स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान आज दलगत राजनीति, क्षेत्रीय व वोटबैंक के क्षुद्र स्वार्थ के लगातार भेंट चढ़ रहा है, इससे ज्यादा राष्ट्रीय शर्म की बात और क्या हो सकती है।