इस लधु पुस्तक को राष्ट्रहित में प्रस्तुत करते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता और आत्मिक संतुष्टि की अनुभूति हो रही है .यह पुस्तक भारत माता (मेरी मातृभूमि) के पद-कमलों में सादर समर्पित है, जिसने अपना पुत्र बनाकर मुझे गौरवान्वित किया है। राष्ट्रीय भावना, जो कि मेरे विचारानुसार विकास के प्रत्येक पहलू की जननी है, को जागृत करना ही इस पुस्तक का मूल ध्येय है।
इस संक्षिप्त पुस्तक के लेखन का मूल उद्देश्य इसे जनसाधारण के बीच उचित मूल्य पर उपलब्ध कराना है। इसकी अनूदित प्रतिलिपियाँ अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध हैं। मेरी ऐसी अवधारणा है कि मोटी-मोटी पुस्तकें आज के भौतिक युग में बुद्धिजीवियों का श्रृगार मात्र बन कर रह गई है जिन्हे आज की व्यस्त जीवनशैली में नापसंद किया जा रहा है। इस संक्षिप्त पुस्तक के माध्यम से मैं उन उत्तम विचारों एवं श्रेष्ठ उन्नत जानकारियों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ , जिन्हे हमारे पूर्वजों एवं संतों नें इस राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए उपयोग किया था। इसमें हमारी धार्मिक पुस्तकों, भारतीय सरकारी राजपत्र (गजट) और इतिहास व संस्कृति के मूलार्थक अंशों का वर्णन यथोचित स्थानों पर इस पुस्तक को सुसज्जित एवं प्रमाणिक बनाने के लिए किया गया है। वेद, पुराण, उपनिषद, संहीता, भागवत गीता ,धर्मशास्त्र एवं योगवशिष्ठ के सारार्थ का समावेश इसकी सत्यता एवं प्रमाणिक को और भी अधिक ठोस बनाता है। भारतीय उपमहाद्वीप का नक्शा विश्वनीयता के लिए भारतीय सरकारी प्रकाशन (गजट) इतिहास व संस्कृति से लिया गया है ।
व्यक्तिगत रूप से मेरी ऐसी अवधारणा है कि हमने अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं अपनें महान पूर्वजों के उत्तम एवं श्रेष्ठ विचारों को स्थापित एवं प्रचारित करने के लिए बहुत कम प्रयास किया है तथा हम विदेशी सभ्यता एवं संस्कृति के मायाजाल और चकाचैंध से भ्रमित हो रहे हैं। अंगे्रजी इतिहासकारों ने हमारे समक्ष अध्ययन के लिए एक ऐसा इतिहास प्रस्तुत किया है जो हमारे अपने मान्य इतिहास से भिन्न, परस्पर विरोधी, त्रुटिपूर्ण, अतार्किक एवं अक्रमिक प्रतीत होता है तथा हमारी राष्ट्रीय भावना एवं उसके उन्नत विचारों को कुंठित एवं भ्रमित करती है ।
हिन्दु समाज में प्राचीन काल से ही शिक्षा की एक मौखिक परम्परा थी जो गुरू के द्वारा शिष्यों को दी जाती थी । यह एक अटूट श्रृंखला में गुरू-शिष्य-परम्परा के नाम से जानी जाती थी । यह परम्परा कितनी सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है, इसका निर्धारण अत्यन्त ही कठिन है। इसीलिए हमारे वेदों, रामायण और महाभारत का लेखन नहीं हो पाया तथा इन संरचनाओं के रचनाकाल और मौखिक संवाहन एवं प्रसार का तिथि निर्धारण आज तक नहीं हो पाया है। युगों से इस मौखिक जनश्रुति, संवाद एवं संप्रेषण मे कई कल्पित, त्रुटिपूर्ण पद्यो, अध्यायों, एवं अर्वाचीन ग्रथों का संमिश्रण एवं आरोपण हो गया हैं । संकीर्ण मानसिकता वाले निहित स्वार्थ- लोलुप वर्गो ने विदेशी शासन काल में हमारी पुस्तकों में कई धर्मान्ध स्वकल्पित विषयों का समावेश किया है और अपने गलत लाभ के लिए कई त्रुटिपूर्ण सूत्रों, पद्यों, अध्यायों, से हमारे मूल ग्रन्थों में संशोधन कर दिया है । परन्तु वैसे विषय जिनसे किसी वर्ग विशेष का कोई निहित स्वार्थ नहीं टकराता था, आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान है तथा इनका सम्यक विश्लेष्ण एवं संयोजन भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं मानव समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं लाभकारी सिद्ध होगां। ऐसे ही कु़छ अमूल्य ग्रन्थों की संक्षिप्त जानकारी पाठकगण के सामने समीक्षा के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।
वेदांग ज्योतिष जो वेदों का ज्योतिष-खौगोलिक अंग है के वर्णनानुसार एक युग 1830 दिनों या पाँच साल का समय चक्र है, जो आज यथार्थ में 1826 1/4 दिनों का है । यह शास्त्र पूर्णतः नक्षत्रों पर आधारित है, जो वेदांग ज्योतिष के अनुसार 27 है। नक्षत्र आकाश में चन्द्रमा की पृष्ठभूमि में तेजपुंज हैं। ये निष्चल तारागण चलायमान न होने के कारण नक्षत्र कहलाते हैं। एक ऐसा तेजपुंज जब चन्द्रमा की पृष्ठभूमि से गुजरता है तो उसे तिथि कहते हैं । यह भारतीय ज्योतिष गणनानुसार एक दिन या चन्द्र दिन कहलाती है जो सूर्य तिथि से थोड़ी छोटी होती है । एक नक्षत्र ऐसा भी है जिस की अवधि पाँच वर्षों के परिधि में सिर्फ एक बार आती है । इस नक्षत्र की अवधि पौराणिक काल से आज घट गई है जो ग्रहों के वर्तमान खौगोलिक स्थिति के कारण है। हाल के दिनों में खगोलशास्त्रियों ने समय चक्र में एक मिनट का वैज्ञानिक संशोधन किया है जो ग्रहों की भौगोलिक स्थिति के कारण आवश्यक समझा गया । मेरा ऐसा मानना है कि जब वेदों की संरचना हुई थी उस काल में युग 1830 दिनों का ही था जो वर्तमान में ग्रहों के खौगोलिक स्थिति के कारण घट कर 1826 1/4 का हो गया है । समय की उलटी गणना एवं इसमें उचित संशोधन, वर्तमान तिथि से खौगोलिक स्थिति का समावेश आदि से वेदों की संरचना की सही तिथि का आकलन आज भी संभव है । इस गणना से हम पौराणिक भारतीय संस्कृति, सभ्यता, भारत स्थित मनुष्यों की वंशावली, उनका उद्भव एवं इससे उत्पन्न कई रहस्यों के आकलन, विश्वसनीयता एव सत्यता को सिध्द कर पायेंगें ,जो मै स्वयं अपने बलबूते पर करने मे असमर्थ हूँ ।
सूर्य सिध्दान्त भारतीय खगोलविद्य की प्रथम प्रमाणिक मानक पुस्तक मानी जाती है । इसके मूल ग्रन्थ का ई०पू० 400 से 1500 ई०पू० तक तीन बार संशोधन हुआ है, परन्तु यह आज भी इतनी शुद्ध है कि सौर ग्रहणों की भविष्यवाणी 2 - 3 धण्टों के अंतर की सत्यता से की जा सकती है ।
सूर्य पुराण एवं हिन्दू ग्रंथों के वर्णनानुसार काल का वर्णन इस प्रकार से है 2 परमाणु = 1 अणु , 2 अणु = 1 त्रिस्ररेणु ,3त्रिस्ररेणु= 1त्रुटि , 1000 त्रुटि= वेध ................... इस मतानुसार सूर्य एक राशि में जितना समय व्यतीत करता है उसे एक सौर मास कहते हैं तथा सारी राशियों में बिताये गए समय को सौर वर्ष का नाम दिया गया है । इसी प्रकार महायुग का वर्णन है जो 43,20,000 सौर वर्ष का होता है। इसका विभाजन सत्युग= 17,26,000 सौर वर्ष, त्रेतायुग = 12,96,000वर्ष (पैराणिक वर्णनानुसार भगवान राम का जन्मकाल), द्वापरयुग = 8,64,000 वर्ष (कृष्ण भगवान का जन्मकाल) कलियुग=4,32,000 साल (वर्तमान युग) ।
पैराणिक वर्णनानुसार 71 महायुगों का एक मनन्वंत्तर होता है जो 30 करोड़ 17 लाख 28 हजार साल का होता है । मनन्वंत्तर के बाद 17 लाख 28 हजार सालों की संध्या होती है जिसमे पूरी पृथ्वी भट्ठी की तरह गर्म होकर जलमग्न हो जाती है । भारतीय खगोलशास्त्र में इसे प्रलय कहा जाता है। इसी प्रकार हमारी पृथ्वी एवं ब्रह्माण्ङं के जीवन की अवधि निर्धारित है तथा कितने वर्षो में पूरा ब्रह्माणङ परमाणु में विलीन हो जाएगा और फिर सौर मण्डल की संरचना होगी यह भी विस्तार से वर्णित है। इसी को वेद के “ सूर्याचन्द्रमसीयाता यथा पूर्वभकल्पयत्” मंत्र में बताया है।
इन विपुलकाय ग्रन्थों में खगोलिक, वैज्ञानिक, सृष्टयादि-प्रलयान्त काल के परिगणन एवं सिद्धान्तों का ऐसा विस्तृत वर्णन है जिससे आज के आधुनिक युग के कई सिद्धान्त मेल खाते हैं तथा आज भी उनकी वैज्ञानिकता, त्रिकालदर्शिता एवं सत्यादेशकारिता स्पष्ट रुप से परिलक्षित होती है। कई सिद्धान्त आज के युग से भी विस्तृत एवं आधुनिक हैं और मानव समाज के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है। कई जटिल वैज्ञानिक समस्याओं का समाधान इन पुस्तकों से सम्भव है ।
मानव की उत्पत्ति, विकास, अभिवृद्धि इत्यादि बहुत सारी जानकारियाँ आज भी एक पहेली बनी हुई हैं। ऐसी बातें जो अतीत के गर्भ में बंद हैं हमारे पौराणिक ग्रन्थों के अभिवर्द्धन, संवेशन,विवेचन एव अनुसंधान से आज भी पता लगाना संभव है। मेरी ऐसी अवधारणा है की खगोलविद्या, दूरी (आकाश)विज्ञान और भूगर्भ आदि शास्त्र इन अमूल्य ग्रन्थों के आत्मीय विशिष्ट विश्लेषण एवं व्यवहारिक प्रयोगीकरण से अत्यन्त लाभान्वित होंगे।
आज का भारतीय समाज तेज गति से बढ़ते भौतिकवाद एवं संसारी प्रपंच में अपनी पहचान खोता जा रहा है । सहस्त्राब्दियों से विदेशी शक्ति के प्रभुत्व एवं शासन ने हमारे समाज में कुछ कुरीतियों, विकृतियों एवं दूषित प्रथाओं का समावेष कर भारतीय समाज का सांप्रतिक रूपान्तरण कर दिया है । यह दुर्भाग्यपूर्ण रूपान्तरण हमारे समाज के सर्वांगीण विकास मे बाधक है । अतीत में हमारे पुर्वजों ने इस राष्ट्र को जिस गरिमामयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया है उसे स्मरण करते हुए इस राष्ट्र का पुनर्निर्माण करना ही हम सभी नागरिकों का परम कर्तव्य है तथा इसके लिए सजग होकर गहन मनन एवं चिंतन करने की आवश्यकता है ।
मेरा ऐसा मानना है कि अगर हमें भारतवर्ष को विश्वशक्ति बनाना है तो हमें अपने पौराणिक वैज्ञानिक, त्रिकालदर्शी ग्रन्थों की उचित व्याख्या, सघन अध्ययन एवं उनका आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानो के प्रसंग मे विषय-विमर्श कर यथेष्ट प्रायोगीकरण करना होगा ।
अन्त में, मैं अपने परम मित्र श्रीनिवास चारी का अतिशय आभारी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के संपादन में मेरी पूरी सहायता की है। इस लधु पुस्तक में शिघ्रता या प्रमादवश जहाँ कहीं भी कोई त्रुटि रह गई है उसके लिए विज्ञजन मुझे क्षमा करेंगे।
ता0....12.06.2005 विजय कुमार सिंह
कंकडबाग पटना..20