कोरोना और रूस-यूक्रेन
युद्ध ने पूरे विश्व को आर्थिक मंदी की ओर ढकेल दिया है . यूरोपीय देशों में रूस
से प्राकृतिक गैस की आपूर्ति बाधित होने से कई छोटी एवं मझोली कंपनियां बंदी की
कगार पर पहुंच गई हैं. इस वजह से बड़ी संख्या में लोगों के बेरोजगार होने का खतरा
भी पैदा हो गया है. दुनिया भर में सरकारें,
व्यवसाय और परिवार युद्ध के आर्थिक प्रभावों को महसूस कर
रहे हैं. बढ़ती मुद्रास्फीति और ऊर्जा लागत बढ़ने से यूरोप मंदी की कगार पर पहुंच
गया है. रूस और यूक्रेन दोनों ही गेंहू के बड़े उत्पादक और निर्यातक देश हैं.
यूक्रेन दुनिया के 10 प्रतिशत गेंहू निर्यात करता है. साथ ही यूक्रेन मक्का के
वैश्विक व्यापार में भी 15 प्रतिशत भागीदार है. वह दुनिया का आधा सूरजमुखी का तेल
बनाता है. युद्ध के कारण दुनिया में गेहूं और सूरजमुखी तेल की किल्लत ला दी है.
चीन मे लगातार तापमान बढ्ने से उत्पन्न सूखे
की स्थिति और बाढ़ के कारण विश्व के गेंहू और चावल के उत्पादन के सबसे बड़े
सोत्र में भारी कमी हुई है जिससे विश्व भर मे खाद्य संकट की आन पड़ी है .खाद्य
पदार्थों की कीमत पूरे विश्व मे अचानक बहुत बढ़ गयी है. कई यूरोपीय देशों में
मुद्रास्फीति कई दशकों के उच्च स्तर पर पहुंच गई है. इस युद्ध के सबसे बड़ा असर के
रूप में दुनिया एक गंभीर खाद्य संकट देख रही है. इस वैश्विक संकट के काल मे भारतीय
अर्थव्यवस्था को उभारने ने लिए राष्ट्र के संसाधनो का सर्वोत्कृष्ट इस्तेमाल,योजनाओं की विवेकपूर्वक संरचना और उसे जन मानस के सहयोग से उसे जमीन पर
उतारना आज की आवश्यकता है .
2.4% क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व की
जनसंख्या के 18% भाग को शरण प्रदान करता है. संयुक्त राष्ट्र
की द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रोस्पोट्स 2019 : हाईलाइट्स नामक
रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2027 तक चीन
को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा.
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की कुल आबादी 1.64 बिलियन के आँकड़े को पार कर जाएगी एवं वैश्विक जनसंख्या में 2 बिलियन हो जाएगी . इस जनसंख्या में बढ़ोतरी से बेरोज़गारी, पर्यावरण का अवनयन, आवासों की कमी, गरीबी, भूख और कुपोषण की समस्या, निम्न जीवन स्तर और बेहतर स्वास्थ्य एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने
में बाधा आती है. इस जनसंख्या पर नियंत्रण लगाना भारतवर्ष के लिए अत्यावश्यक, और इसके लिए जरूरी योजनायें और कानून बनाना सरकार का प्रथम कार्य होना चाहिए .
जनसंख्या के कुप्रभाव
से भारत की 29.3% मिट्टी खराब हो गयी है. विश्व भर मे जंगलों को कृषि योग्य बनाने के लिए
काटने से मिट्टी खराब हो रही है. भारत में प्रतिवर्ष 2.4
प्रतिशत की दर से शहरीकरण बढ़ रहा है. इसके अतिरिक्त भूमि एवं मृदा की गुणवत्ता में
भी कमी आई है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादित खाद्यान्नों पर पड़ रहा है .
जनसंख्या के लगातार बढ़ोतरी के कारण कृषि योग्य भूमि कम पड़ रही है और इसलिए उद्योगों
के विकेंद्रीकृत व्यवस्था के लिए बंजर
भूमि का उपयोग आज की आवश्यकता है .
संपूर्ण विश्व में
बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है,
बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव
द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए
तरह-तरह की रासायनिक खादों,
जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और
अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के
चक्र को (इकालाजी सिस्टम) प्रभावित करता है,
जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ
ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है. जैविक
खेती रासायनिक खाद के न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है, जो भूमि की उर्वरा
शक्ति को बचाये रखने के लिये फसल चक्र,
हरी खाद, गोबर ,जैविक
वस्तुओं का
कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है. कीटनाशकों की जगह नीम का
घोल, मट्ठा,
मिर्च या लहसुन के अलावा लकड़ी की राख या गोमूत्र उपयोग में
लाए जाते हैं.इससे मिट्टी की गुणवत्ता, उत्पादकता एवं जलधारण करने की ताकत भी बढ़ा देती है. जैविक खेती से जुड़े
सबसे ज्यादा किसानों की संख्या भारत में ही है. दुनिया के कुल जैविक उत्पादन में
अकेले भारत का हिस्सा 30 प्रतिशत है. सिक्किम पहले ही जैविक राज्य बन चुका है.
त्रिपुरा और उत्तराखंड सहित कई अन्य राज्य भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. विश्व
मे जैविक खेती भारत की देन है .प्राचीन भारत में खेती जैविक और गौ माता पर आधारित
थी इसलिए भारत में गौ माता की पुजा की जाती है . भारतीय नस्ल की गायों मे बहुत
सारे ऐसे औषधीय और कृषि के उत्पादन बढ़ाने वाले गुण हैं जो किसी और नस्ल की गाय में
नहीं. इसलिए भारतीय नस्ल की दुधारू गायें जैसे गीर, साहीवाल, राठी , हल्लीकर,हरियाणवी,लाल सिंधी इत्यादि नस्ल की गाय की
संख्या को बढ़ाने के लिए योजना बनाना आवश्यक
है .
पूरे विश्व के साथ आज
भारत भी पेय जल की समस्या से जूझ रहा है जिसमे 50% से कम आबादी को आज पेय जल
उपलब्ध है . नीति आयोग के अनुमान के अनुसार 2030 तक 21 प्रमुख शहर मे भूमिगत जल की
खत्म होने के कगार पर होगी .भारत आज विश्व के कुल भूमिगत जल का 25 % उपयोग कर
रहा जो चीन और अमेरिका के उपयोग से भी
ज्यादा है . भारतवर्ष मे आज विश्व की 18% आबादी रहती है जबकि विश्व का मात्र 4 %
जल सोत्र इसके पास उपलब्ध है . इस कमी के बावजूद भारतीय विश्व के उन देशों में है
जो सबसे ज्यादा जल का उपभोग करते हैं . यू एन के अनुसार 2050 तक यह समस्या और जटिल
हो जाएगी . सरकार ने इसके निदान के लिए
2016 मे एक कानून पारित किया है और जल शक्ति अभियान, जल
जीवन योजना , अटल बहुजल योजना आरंभ किया है .
भारत के वार्षिक आयात
में अप्रैल - मई 2022 में 42.35% वृद्धि
हुई है जो $120.81 अरब है . मई 2022 की मासिक
वृद्धि 56% के साथ 37.3 अरब (बिल्यन) अरब
दर्ज की गयी , जिसका प्रमुख कारण
क्रूड ऑइल के आयात मूल्यों मे 92% का उछाल रहा है जो मई 2021 के 9.47 अरब
डॉलर से बढ़कर $18.14 अरब है . इसके कारण व्यापार घाटा मई 21 के $6.53
अरब की तुलना में मई 22 में $23.33
अरब हो गया है. कच्चे तेल की कीमत प्रति बैरल
नवम्बर- दिसम्बर 2021 मे औसतन 65
से 70 डॉलर था जो मई 2022 मे बढ़कर $95 से 117 डॉलर तक पहुँच गयी . इसके अलावा भारत सोना , कीमती
पत्थर, दाल , खाद्य तेल,
रासायनिक खाद ,
कोयले और कपड़े
उत्पादन के लिए कपास का भी बड़ी मात्रा में आयात करता है .
ऊर्जा के क्षेत्र मे
भारत आत्मनिर्भर नहीं है .भारत अपने जरूरत का 85% क्रूड ऑइल और 55% प्राकृतिक गैस
विदेशो से आयात करता है . भारत तेल का विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है जो
विश्व के 5 % तेल का उपभोग करता है , जबकि वह विश्व उत्पाद मे इसकी हिस्सेदारी 1% मात्र है . चीन के बाद यह तेल का विश्व का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश है जो अपने कुल आयात का 20
% कच्चे तेल में खर्च करता है . लगातार बढती तापमान और आर्थिक गतिविधियों ने बिजली
की मांग को पिछले वर्ष के मुक़ाबले 23 गुना बढ़ा दिया है,
जिससे कि देश की कोयले के चालित 62 % बिजली कंपनियों के कोयले के स्टॉक को संकटमय
स्थिति मे ला दिया है. इसका एकमात्र उपाय
नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा,
भू-तापीय ऊर्जा,
पवन,
ज्वार,
जल और बायोमास के विभिन्न प्रकार शामिल हैं, को बढ़ावा देना जरूरी है. यह ऐसी ऊर्जा है जो प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर
करती है और जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचता और लगातार नवीनीकृत किया
जाता है.
भारतीय अर्थव्यवस्था
विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के लिए
एक पसंदीदा विकल्प बनी हुई है और ग्रीनफील्ड
परियोजनाओं के लिए शीर्ष 10 स्थानों में
एक है. भारत ने वित्त वर्ष 2021-22 में 83.57 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष
विदेशी निवेश (एफडीआई) हासिल किया जो अब तक किसी भी वित्त वर्ष में सबसे अधिक है
.वर्ष 2014-15 में भारत में केवल 45.15 अरब अमेरिकी डॉलर का एफडीआई आया था. विदेशी मुद्रा भंडार 600 बिलियन अमेरिकी डॉलर
से बढ़कर 31 दिसम्बर,
2021 को 633.6 बिलियन हो गया है. नवम्बर,
2021 के अंत में भारत चीन, जापान और स्विट्जरलैंड
के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार वाला देश था. इस मुद्रा
भंडार को और बढ़ाना चाहिए जिसके लिए भारत को अपने निर्यात को बढ़ाते हुए आयात को
घटाना होगा. भारत को निर्यात बढ़ाने के लिए रक्षा ,
उच्च-तकनीक से निर्मित वस्तुओं और पूंजीगत वस्तुओं पर ज्यादा ध्यान देना होगा .
जनतंत्र में
अर्थ-सत्ता का केन्द्रीकरण, मानव – स्वातंत्र्य के लिए खतरनाक होता है,
अत: भौगोलिक एवं व्यावसायिक दोनों दृष्टि से इसका विकेन्द्रीकरण होना चाहिए. ऐसा
विकेन्द्रीकरण आधुनिक युग और परिस्थितियों के अनुसार करना आज की आवश्यकता है
. अपने आयात और निर्यात के व्यापार के
सिलसिले में वाराणसी के हड़हा सराय बाजार जाने का अवसर मुझे मिला . वहाँ मैंने देखा
की व्यापारी , ग्रामीण कामगारों को कृत्रिम जेवरात बनाने
हेतु मनका- मोती दाना, धागा, लॉकेट
इत्यादि दे रहे थे , जिसे वे अपने गाँव ले जाकर स्वीकृत
डिज़ाइन के अनुसार कृत्रिम जेवरात तैयार कर उसे वापस व्यापारी को सौंप देते थे . उसका
इनको उचित मेहनताना मिल जाता था . हस्तशिल्प और हथकरघा के कार्य में ऐसे कार्यों
का विभाजन और वितरण अक्सर देखा जाता रहा है
जिसे हम उचित योजना और व्यवस्था बनाकर उत्पादन के अन्य क्षेत्रों भी उपयोग कर सकते हैं. आई ०टी० सेक्टर में
सॉफ्टवेयर के विकास में, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीनलर्निंग
और रोबोटिक्स ऐसे कई क्षेत्रों में कार्यों का विभाजन देखा गया है , जो कर्मचारी सुदूर प्रदेशों मे
रहकर अपनी कंपनियों के लिए ऐसे कार्य करते आ रहे हैं . आज सरकार की योजना हर ग्राम
को इंटरनेट से जोड़ने की है , जिसका भरपूर उपयोग योजना बनाकर
हम अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीकरण के लिए
कर सकते . जरूरत है रचनात्मक सोच और योजना बनाने की.
मानव के जीवित रहने के
लिए आवश्यक प्राकृतिक पर्यावरण जैसे - वायु,
जल,
वन व विविध जीवन रूपों को बनाते हैं. वे आर्थिक शक्ति व
समृद्धि का आधार हैं . प्राकृतिक संसाधनों का वहनीय प्रबंध, किसी
भी राष्ट्र के विकास एवं दीर्घकालिक वहनीयता के लिये अत्यंत आवश्यक है. प्राकृतिक
संसाधन एवं मानव संसाधन एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों के मध्य संतुलन ही जीवन का
आधार है. यदि यह संतुलन बिगड़ गया तो मानव जाति अपने सर्वनाश की ओर अग्रसर होगी.
वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश
आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है. तत्त्वदर्शी
ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असन्तुलन की समस्या
ही उत्पन्न नहीं हो सकती. जल जीवन का प्रमुख तत्त्व है. इसलिए, वेदों
में अनेक सन्दर्भों में उसके महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है. ऋग्वेद
(1.23.248) में 'अप्सु अन्तः अमृतं,
अप्सु भेषजं'
के रूप में जल का वैशिष्ट्य बताया गया है. अर्थात्, जल
में अमृत है,
जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं. अस्तु, आवश्यकता
है जल की शुद्धता-स्वच्छता को बनाए रखने की. ‘वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सानो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि’-(अथर्ववेद, 12.1.52) जल के साथ-साथ सभी ऋतुओं को
अनुकूल रखने का वर्णन भी वेदों में मिलता है. ऋग्वेद में स्पष्टतया व्यंजित है.
अर्थव्यवस्था के विस्तार मे पर्यावरण का ध्यान अतिआवश्यक है जो भारतीय जीवन
मूल्यों से ही संभव है .
स्वदेशी और स्वावलंबन
आर्थिक नीतियों के प्रमुख सूत्र होने चाहिए .विश्व मे प्रचलित पूंजीवादी व्यवस्था
मनुष्य को सम्पत्ति का दास बना देता है ,
तो कम्यूनिस्ट अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वतंत्रता छीनकर उसे शासन- संस्था
का दास बना देता है . दोनों ही पद्धतियाँ मनुष्य को भौतिकवादी पशु बनाती है. स्वतंत्रता केवल प्रजातन्त्र का नहीं , मानव और राष्ट्र का भी प्राणतत्व है .राजनीतिक स्वतन्त्रता के बिना
आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता असंभव है .आर्थिक स्वतंत्रता न हो , तो अर्थ का अभाव तथा प्रभाव मानव को परतंत्र बना देता है . भारतीय
संस्कृति मानव को केवल अर्थपरायन जीवन नहीं मानती .
इसलिए एक ऐसी
अर्थव्यवस्था जिसमे मानव की स्वतंत्रता तथा उसके व्यक्तित्व का गुणात्मक विकास, जो
भारतीय मूल्यों और जीवन – प्रणाली
के अनुसार हो ,
भारत के अर्थनीति का मुख्य उदेश्य होना चाहिए .