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भारतीय अर्थव्यवस्था दशा और दिशा, प्राकृतिक संसाधन

कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध ने पूरे विश्व को आर्थिक मंदी की ओर ढकेल दिया है . यूरोपीय देशों में रूस से प्राकृतिक गैस की आपूर्ति बाधित होने से कई छोटी एवं मझोली कंपनियां बंदी की कगार पर पहुंच गई हैं. इस वजह से बड़ी संख्या में लोगों के बेरोजगार होने का खतरा भी पैदा हो गया है. दुनिया भर में सरकारें, व्यवसाय और परिवार युद्ध के आर्थिक प्रभावों को महसूस कर रहे हैं. बढ़ती मुद्रास्फीति और ऊर्जा लागत बढ़ने से यूरोप मंदी की कगार पर पहुंच गया है. रूस और यूक्रेन दोनों ही गेंहू के बड़े उत्पादक और निर्यातक देश हैं. यूक्रेन दुनिया के 10 प्रतिशत गेंहू निर्यात करता है. साथ ही यूक्रेन मक्का के वैश्विक व्यापार में भी 15 प्रतिशत भागीदार है. वह दुनिया का आधा सूरजमुखी का तेल बनाता है. युद्ध के कारण दुनिया में गेहूं और सूरजमुखी तेल की किल्लत ला दी है. चीन मे लगातार तापमान बढ्ने से उत्पन्न सूखे  की स्थिति और बाढ़ के कारण विश्व के गेंहू और चावल के उत्पादन के सबसे बड़े सोत्र में भारी कमी हुई है जिससे विश्व भर मे खाद्य संकट की आन पड़ी है .खाद्य पदार्थों की कीमत पूरे विश्व मे अचानक बहुत बढ़ गयी है. कई यूरोपीय देशों में मुद्रास्फीति कई दशकों के उच्च स्तर पर पहुंच गई है. इस युद्ध के सबसे बड़ा असर के रूप में दुनिया एक गंभीर खाद्य संकट देख रही है. इस वैश्विक संकट के काल मे भारतीय अर्थव्यवस्था को उभारने ने लिए राष्ट्र के संसाधनो का सर्वोत्कृष्ट इस्तेमाल,योजनाओं की विवेकपूर्वक संरचना और उसे जन मानस के सहयोग से उसे जमीन पर उतारना आज की आवश्यकता है . 

2.4% क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व की जनसंख्या के 18% भाग को शरण प्रदान करता है. संयुक्त राष्ट्र की द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रोस्पोट्स 2019 : हाईलाइट्स नामक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2027 तक चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे ज्‍़यादा आबादी वाला देश बन जाएगा. रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की कुल आबादी 1.64 बिलियन के आँकड़े को पार कर जाएगी एवं वैश्विक जनसंख्या में 2 बिलियन हो जाएगी . इस जनसंख्या में बढ़ोतरी से बेरोज़गारी, पर्यावरण का अवनयन, आवासों की कमी, गरीबी, भूख और कुपोषण की समस्या, निम्न जीवन स्तर और बेहतर स्वास्थ्य एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में बाधा आती है. इस जनसंख्या पर नियंत्रण लगाना भारतवर्ष के लिए अत्यावश्यक, और इसके लिए जरूरी योजनायें और कानून बनाना सरकार का  प्रथम कार्य होना चाहिए .

जनसंख्या के कुप्रभाव से भारत की 29.3% मिट्टी खराब हो गयी है.  विश्व भर मे जंगलों को कृषि योग्य बनाने के लिए काटने से मिट्टी खराब हो रही है. भारत में प्रतिवर्ष 2.4 प्रतिशत की दर से शहरीकरण बढ़ रहा है. इसके अतिरिक्त भूमि एवं मृदा की गुणवत्ता में भी कमी आई है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादित खाद्यान्नों पर पड़ रहा है . जनसंख्या के लगातार बढ़ोतरी के कारण कृषि योग्य भूमि कम पड़ रही है और इसलिए उद्योगों के विकेंद्रीकृत व्यवस्था के लिए  बंजर भूमि का उपयोग आज की आवश्यकता है .

संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक  पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के चक्र को (इकालाजी सिस्टम) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है. जैविक खेती रासायनिक खाद के न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है, जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद,  गोबर ,जैविक वस्तुओं का कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है. कीटनाशकों की जगह नीम का घोल, मट्ठा, मिर्च या लहसुन के अलावा लकड़ी की राख या गोमूत्र उपयोग में लाए जाते हैं.इससे  मिट्टी की गुणवत्ता, उत्पादकता एवं जलधारण करने की ताकत भी बढ़ा देती है. जैविक खेती से जुड़े सबसे ज्यादा किसानों की संख्या भारत में ही है. दुनिया के कुल जैविक उत्पादन में अकेले भारत का हिस्सा 30 प्रतिशत है. सिक्किम पहले ही जैविक राज्य बन चुका है. त्रिपुरा और उत्तराखंड सहित कई अन्य राज्य भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. विश्व मे जैविक खेती भारत की देन है .प्राचीन भारत में खेती जैविक और गौ माता पर आधारित थी इसलिए भारत में गौ माता की पुजा की जाती है . भारतीय नस्ल की गायों मे बहुत सारे ऐसे औषधीय और कृषि के उत्पादन बढ़ाने वाले गुण हैं जो किसी और नस्ल की गाय में नहीं. इसलिए भारतीय नस्ल की दुधारू गायें जैसे गीर, साहीवाल, राठी , हल्लीकर,हरियाणवी,लाल सिंधी  इत्यादि नस्ल की गाय की संख्या को बढ़ाने के लिए योजना बनाना आवश्यक  है  .

पूरे विश्व के साथ आज भारत भी पेय जल की समस्या से जूझ रहा है जिसमे 50% से कम आबादी को आज पेय जल उपलब्ध है . नीति आयोग के अनुमान के अनुसार 2030 तक 21 प्रमुख शहर मे भूमिगत जल की खत्म होने के कगार पर होगी .भारत आज विश्व के कुल भूमिगत जल का 25 % उपयोग कर रहा  जो चीन और अमेरिका के उपयोग से भी ज्यादा है . भारतवर्ष मे आज विश्व की 18% आबादी रहती है जबकि विश्व का मात्र 4 % जल सोत्र इसके पास उपलब्ध है . इस कमी के बावजूद भारतीय विश्व के उन देशों में है जो सबसे ज्यादा जल का उपभोग करते हैं . यू एन के अनुसार 2050 तक यह समस्या और जटिल हो जाएगी .  सरकार ने इसके निदान के लिए 2016 मे एक कानून पारित किया है और जल शक्ति अभियान, जल जीवन योजना , अटल बहुजल योजना आरंभ किया है .      

भारत के वार्षिक आयात में अप्रैल - मई 2022 में  42.35% वृद्धि हुई है जो $120.81 अरब  है . मई 2022 की मासिक वृद्धि 56%  के साथ 37.3 अरब (बिल्यन) अरब दर्ज  की गयी , जिसका  प्रमुख कारण  क्रूड ऑइल के आयात मूल्यों मे 92% का उछाल रहा है जो मई 2021 के 9.47 अरब डॉलर से बढ़कर $18.14 अरब है . इसके कारण व्यापार घाटा मई 21 के $6.53 अरब की तुलना में मई 22 में  $23.33 अरब हो गया है. कच्चे तेल की कीमत प्रति बैरल  नवम्बर- दिसम्बर  2021 मे औसतन 65 से 70 डॉलर था जो मई 2022 मे बढ़कर $95 से 117 डॉलर तक पहुँच गयी . इसके अलावा भारत सोना , कीमती पत्थर, दाल , खाद्य तेल, रासायनिक खाद , कोयले  और कपड़े उत्पादन  के लिए कपास  का भी बड़ी मात्रा में आयात करता है  .

ऊर्जा के क्षेत्र मे भारत आत्मनिर्भर नहीं है .भारत अपने जरूरत का 85% क्रूड ऑइल और 55% प्राकृतिक गैस विदेशो से आयात करता है . भारत तेल का विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है जो विश्व के 5 % तेल का उपभोग करता है , जबकि वह विश्व  उत्पाद मे इसकी हिस्सेदारी 1% मात्र  है . चीन के बाद यह तेल का विश्व का दूसरा  सबसे बड़ा आयातक देश है जो अपने कुल आयात का 20 % कच्चे तेल में खर्च करता है . लगातार बढती तापमान और आर्थिक गतिविधियों ने बिजली की मांग को पिछले वर्ष के मुक़ाबले 23 गुना बढ़ा दिया है, जिससे कि देश की कोयले के चालित 62 % बिजली कंपनियों के कोयले के स्टॉक को संकटमय स्थिति मे ला दिया है.  इसका एकमात्र उपाय नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, पवन, ज्वार, जल और बायोमास के विभिन्न प्रकार शामिल हैं, को बढ़ावा देना जरूरी है. यह ऐसी ऊर्जा है जो प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर करती है और जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचता और लगातार नवीनीकृत किया जाता है.

भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी  प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के लिए एक पसंदीदा  विकल्प बनी हुई है और ग्रीनफील्ड परियोजनाओं  के लिए शीर्ष 10 स्थानों में एक है. भारत ने वित्त वर्ष 2021-22 में 83.57 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) हासिल किया जो अब तक किसी भी वित्त वर्ष में सबसे अधिक है .वर्ष 2014-15 में भारत में केवल 45.15 अरब अमेरिकी डॉलर का एफडीआई आया था.  विदेशी मुद्रा भंडार 600 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 31 दिसम्बर, 2021 को 633.6 बिलियन हो गया है.  नवम्बर, 2021 के अंत में भारत चीन, जापान और स्विट्जरलैंड के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार वाला देश था. इस मुद्रा भंडार को और बढ़ाना चाहिए जिसके लिए भारत को अपने निर्यात को बढ़ाते हुए आयात को घटाना होगा. भारत को निर्यात बढ़ाने के लिए रक्षा , उच्च-तकनीक से निर्मित वस्तुओं और पूंजीगत वस्तुओं  पर ज्यादा ध्यान देना होगा .

जनतंत्र में अर्थ-सत्ता का केन्द्रीकरण, मानव – स्वातंत्र्य  के लिए खतरनाक होता है, अत: भौगोलिक एवं व्यावसायिक दोनों दृष्टि से इसका विकेन्द्रीकरण होना चाहिए. ऐसा विकेन्द्रीकरण आधुनिक युग और परिस्थितियों के अनुसार करना आज की आवश्यकता है .  अपने आयात और निर्यात के व्यापार के सिलसिले में वाराणसी के हड़हा सराय बाजार जाने का अवसर मुझे मिला . वहाँ मैंने देखा की व्यापारी , ग्रामीण कामगारों को कृत्रिम जेवरात बनाने हेतु मनका- मोती दाना, धागा, लॉकेट इत्यादि दे रहे थे , जिसे वे अपने गाँव ले जाकर स्वीकृत डिज़ाइन के अनुसार कृत्रिम जेवरात तैयार कर उसे वापस व्यापारी को सौंप देते थे . उसका इनको उचित मेहनताना मिल जाता था . हस्तशिल्प और हथकरघा के कार्य में ऐसे कार्यों का विभाजन और वितरण अक्सर देखा जाता रहा है  जिसे हम उचित योजना और व्यवस्था बनाकर उत्पादन के अन्य क्षेत्रों भी  उपयोग कर सकते हैं. आई ०टी० सेक्टर में सॉफ्टवेयर के विकास में, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीनलर्निंग और रोबोटिक्स ऐसे कई क्षेत्रों में कार्यों का विभाजन देखा गया है , जो कर्मचारी सुदूर प्रदेशों  मे रहकर अपनी कंपनियों के लिए ऐसे कार्य करते आ रहे हैं . आज सरकार की योजना हर ग्राम को इंटरनेट से जोड़ने की है , जिसका भरपूर उपयोग योजना बनाकर हम अर्थव्यवस्था के  विकेन्द्रीकरण के लिए कर सकते . जरूरत है रचनात्मक सोच और योजना बनाने की. 

मानव के जीवित रहने के लिए आवश्यक प्राकृतिक पर्यावरण जैसे - वायु, जल, वन व विविध जीवन रूपों को बनाते हैं. वे आर्थिक शक्ति व समृद्धि का आधार हैं . प्राकृतिक संसाधनों का वहनीय प्रबंध, किसी भी राष्ट्र के विकास एवं दीर्घकालिक वहनीयता के लिये अत्यंत आवश्यक है. प्राकृतिक संसाधन एवं मानव संसाधन एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों के मध्य संतुलन ही जीवन का आधार है. यदि यह संतुलन बिगड़ गया तो मानव जाति अपने सर्वनाश की ओर अग्रसर होगी.

वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है. तत्त्वदर्शी ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असन्तुलन की समस्या ही उत्पन्न नहीं हो सकती. जल जीवन का प्रमुख तत्त्व है. इसलिए, वेदों में अनेक सन्दर्भों में उसके महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है. ऋग्वेद (1.23.248) में 'अप्सु अन्तः अमृतं, अप्सु भेषजं' के रूप में जल का वैशिष्ट्य बताया गया है. अर्थात्, जल में अमृत है, जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं. अस्तु, आवश्यकता है जल की शुद्धता-स्वच्छता को बनाए रखने की. वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सानो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि-(अथर्ववेद, 12.1.52) जल के साथ-साथ सभी ऋतुओं को अनुकूल रखने का वर्णन भी वेदों में मिलता है. ऋग्वेद में स्पष्टतया व्यंजित है. अर्थव्यवस्था  के विस्तार मे  पर्यावरण का ध्यान अतिआवश्यक है जो भारतीय जीवन मूल्यों से ही संभव है . 

स्वदेशी और स्वावलंबन आर्थिक नीतियों के प्रमुख सूत्र होने चाहिए .विश्व मे प्रचलित पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य को सम्पत्ति का दास बना देता है , तो कम्यूनिस्ट अर्थव्यवस्था  मनुष्य की स्वतंत्रता छीनकर उसे शासन- संस्था का दास बना देता है . दोनों ही पद्धतियाँ मनुष्य को भौतिकवादी पशु बनाती है.  स्वतंत्रता केवल प्रजातन्त्र का नहीं , मानव और राष्ट्र का भी प्राणतत्व है .राजनीतिक स्वतन्त्रता के बिना आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता असंभव है .आर्थिक स्वतंत्रता न हो , तो अर्थ का अभाव तथा प्रभाव मानव को परतंत्र बना देता है . भारतीय संस्कृति मानव को केवल अर्थपरायन जीवन नहीं मानती .

इसलिए एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमे मानव की स्वतंत्रता तथा उसके व्यक्तित्व का गुणात्मक विकास, जो भारतीय मूल्यों और  जीवन प्रणाली के अनुसार हो , भारत के अर्थनीति का मुख्य उदेश्य होना चाहिए .

 


भारतीय अर्थव्यवस्था दशा और दिशा , मानव संसाधन

 

किसी देश का विकास वहाँ की  प्राकृतिक , मानवीय और सामाजिक संसाधनों पर निर्भर करता है . उस देश मे खनिज , ऊर्जा, जल, भौगोलिक संरचना, स्थिति,वहाँ का तापमान , वनष्पति, जैविक सम्पदा, उस देश के लोगों की शारीरिक , मानसिक और वैचारिक क्षमता और पारिपक्वता, शिक्षा और वहाँ के समाज की संरचना इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. भारत की कृषिपरक जलवायु क्षेत्रों की विशाल श्रृंखला, भूमि एवं वन का भण्डार, एवं जैव विविधता की संपन्नशीलता, इसे विश्व के सर्वाधिक सम्पदा सम्पन्न राष्ट्रों में से एक बनाती है.

भारत, 3287260 वर्ग किमी के भौगोलिक क्षेत्र के साथ विश्व का सातवां सबसे बड़ा राष्ट्र है. संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठनके अनुमानों के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20-21 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित हैं. भारत में प्रति व्यक्ति वन भूमि की उपलब्धता 0.08 हेक्टेयर विश्व में सर्वाधिक कम है जबकि यह उपलब्धता विश्व में 0.64 हेक्टेयर (औसत) रूप से एवं विकासशील राष्ट्रों में 0.50 हेक्टेयर है. वनों का क्षय एक अहम पर्यावरण समस्या है. भारत में 3,60,400 वर्ग कि.मी. की जलीय क्षेत्र एवं औसत वर्षा 1100 मि.मी. है . कुल जल संसाधन का 92 प्रतिशत सिंचाई के कार्य में प्रयुक्त होता है. भारत में मछलियों की कुल 2546 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो सम्पूर्ण विश्व का 11.7 प्रतिशत है. भारत में विश्व के 4.4 प्रतिशत (197) उभयचरों की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं. सन 2008 में भारत विश्व में समुद्री एवं स्वच्छ जल मछलियों का छठा सबसे बड़ा उत्पादक एवं मत्स्यपालन मछलियों का द्वितीय सबसे बड़ा उत्पादक था. भारत में 4 प्रकार के इंधन, 11 धात्विक (धातु तत्व वाले ), 52 अधात्विक एवं 22 लघु खनिजों का भण्डार है. भारत, विश्व में कोयला भण्डार में चतुर्थ, लौह अयस्क उत्पादक में पंचम, मैंगनीज अयस्क भण्डार में सप्तम , शीट माइका उत्पादन में प्रथम, बॉक्साइट भण्डार में पंचम एवं थोरियम में प्रथम स्थान रखता है. भारत प्राकृतिक गैस के भंडार मामले में विश्व में 22वें स्थान पर आता है. देश में लगभग 10% बिजली का निर्माण प्राकृतिक गैस से किया जाता है. देश  में 647 बिलियन क्यूबिक मीटर गैस के भण्डार होने का अनुमान है.अंतर्राष्ट्रीय भू-गर्भिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में खनिज तेल का भंडार 620 करोड़ टन है. तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग ने भारत का कुल खनिज तेल भंडार 1750 लाख टन बताया है. भारत प्राकृतिक एवं मनुष्य-धन दोनों ही संसाधनों में धनी है. यहाँ आवश्यकता मात्र प्राकृतिक संसाधनों के प्रभावपूर्ण एवं क्षमतापूर्ण दोहन की है, ताकि उसका अधिकतम कल्याण किया जा सके.

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जिससे किसी देश कि मात्रात्मक प्रगति की गणना की जाती है,  वह  एक विशिष्ट समय में किसी देश की सीमाओं के भीतर उत्पादित सभी परिष्कृत वस्तुओं और सेवाओं का कुल मौद्रिक या बाजार मूल्य है. हालांकि जीडीपी की गणना आम तौर पर वार्षिक आधार पर की जाती है लेकिन कभी-कभी इसकी गणना त्रैमासिक आधार पर भी की जाती है. किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन में जिन चीजों की आवश्यकता होती है उन्हें उत्पादन के कारक  या इनपुट कहते हैं .उत्पादन के मूलभूत कारक ये हैं- भूमि, श्रम, पूँजी और उद्यमिता.  

श्रम से व्यक्ति के कार्य करने की शारीरिक और मानसिक क्षमता गणना होती है . भारतवर्ष में विभिन्न प्रजाति, वर्ग और शारीरिक मानसिक क्षमता की  श्रम शक्ति मौजूद है . संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, भारत दुनिया का ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा युवा रहते हैं. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से इस समय देश की 27 फीसदी से ज्यादा आबादी युवा है . यूएन के डाटा के अनुसार आज  भारत  में कार्ययोग्य श्रम शक्ति (15 – 59) विश्व में सबसे अधिक है और 2090 तक यह राष्ट्र इसमें अग्रणि रहेगा .

पूँजी वह धन है जो व्यक्ति संचय कर या कर्ज लेकर अपने उत्पादन मे लगाता है . आरबीआई के अनुसार यह दर मार्च 2021 में 28.2% है , जो काफी कम है और चिंतनीय विषय है. उद्यमिता का अर्थ व्यवसाय एवं उद्योग में निहित विभिन्न अनिश्चितताओं एवं जोखिम का सामना करने की योग्यता एवं प्रवृत्ति है. उद्यमिता समाज के लोगो में नये नये प्रयोग एवं अनुसंधान करने तथा उपयोगिताओं का सृजन करने की योग्यताओं का विकास करके रोजगार के अवसरों में वृद्धि को करने का कार्य करता है. भारत सरकार ने उद्यमिता विकास के लिए  भारतीय उद्यमशीलता संस्थान (आईआईई), उद्यमिता और कौशल विकास कार्यक्रम, राष्ट्रीय उद्यमिता लघु व्यवसाय विकास संस्थान ,राष्ट्रीय सूक्ष्म लघु मध्यम उद्यम संस्थान, स्किल डेव्लपमेंट कार्यक्रम, स्टार्टअप इंडिया, मुद्रा योजना आदि कई कार्यक्र्म चलाये जा रहे हैं .

श्रम, पूँजी और उद्यमिता ये उत्पादन के कारक शब्द मानव के द्वारा संचालित है और यह समाज की शिक्षा ,दक्षता , एकता और सामाजिक भावना पर आधारित है . इसलिए व्यक्ति का निर्माण और मानव संसाधनों का विकास आवश्यक है .  

ऊपर लिखे सारे उत्पादन के कारक में बदलाव किया जा सकता है परंतु भूमि की उपलब्धता सीमित है . जापान ने अपनी इस कमी को अपने सूझबुझ से, समुद्र मे खेती कर, बहुमंजिलीय  इमारत बनाकर पूरी कर ली है . यहाँ यह बताना आवश्यक है कि 1947 मे जापान की प्रति किलो मीटर जनसंख्या भारतवर्ष से लगभग तिगुनी थी.

 भारतीय  वैचारिक संपन्नता, अध्यात्म और बौद्धिक गुणों से परिपूर्ण हैं .  अमेरिका के नेशनल साइन्स फ़ाउंडेशन के 2008  रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व में सबसे ज्यादा इंजीनियर और विज्ञान स्नातक हैं जो पूरे विश्व का 25 % है . ट्विटर , माइक्रोसॉफ़्ट , अल्फ़ाबेट , आइ०बी०एम०, अडोब समेत विश्व की 10 बड़ी कंपनियों के सीईओ भारतीय हैं. विश्व के सबसे बड़ी आइ० टी०  कंपनी आई बी एम  में आज सबसे ज्यादा कार्यरत कर्मचारी भारतीय हैं. विश्व सॉफ्टवेयर निर्यात में 12 प्रतिशत हिस्से के साथ  सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) के क्षेत्र में  विश्व में अग्रणी है. भारत का आई ०टी० सेक्टर, जिसने 2018-19 में शुद्ध निर्यात के माध्यम से 78 बिलियन अमेरिकी डॉलर कमाया, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग और रोबोटिक्स सहित नई तकनीकों में छलांग लगा रहा है . सेवाओं के निर्यात के क्षेत्र में  भारत  आगे है , और वर्ष 2020-21 में 10.5 प्रतिशत के दर से बढ़ा है . भारत के जीडीपी मे इसका योगदान लगभग 50% है . मानव संसाधन भारत की सबसे बड़ी शक्ति है और सेवा कार्यों जैसे पर्यटन, होटल, आई टी सोफ्टवेयर, चिकित्सा सेवा  इत्यादि का  विकास और निर्यात कर भारत आर्थिक रूप से विकसित देश बन  सकता है.

समता ,समानता,आर्थिक अवसरों की कमी और भ्रष्टाचार के कारण भारतीय प्रतिभा का पलायन दूसरे देशों मे हो रहा है . यू०एन० डीईएसए जनवरी 2021  के एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 से 2020 के बीच लगभग 1 करोड़ भारतीय प्रतिभा का  पलायन दूसरे देश में हो चुका है और अब वे अप्रवासी भारतीय बन गए हैं . 

 मनुष्य  अपने कार्य  करने के लिए अपने मजबूत हाथों  पर निर्भर करता है जिसमें उसकी सभी अंगुलियां उस  कार्य मे लगी रहती हैं .इसी तरह भारत को उन्नति की ओर ले जाने के लिए समाज के सभी अंग दलित,अगड़े , पिछड़े, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई  सभी को एक जुट होकर एक दिशा में कार्य करना होगा. एक मजबूत एवं उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए यह परम-आवश्यक है कि इसके नागरिकों में एकता और सद्भावना हो . एक संगठित समाज / राष्ट्र ही सामर्थ्यवान होता है जहाँ समाज की शक्ति सार्थक दिशा में राष्ट्र  के सर्वांगीण विकास में एक जुट होती है .इसके बिना राष्ट्र का विकास अधुरा रह जाता है . विश्व के सात बड़े विकसित देशों के समूह जी7 का विचार करें, तो इसमें दो ऐसी आर्थिक शक्तियाँ हैं, जिनको भारतवर्ष के साथ ही लगभग स्वतन्त्रता मिली तानाशाहों से,  जापान और जर्मनी ये दो देश द्वितीय विश्वयुद्ध मे बुरी तरह तबाह हो गए थे. काम करने वाले स्वस्थ लोग कम ही बचे थे , आर्थिक एवं राजनैतिक दबाव से ग्रसित थे तथा कर्ज के बोझ से दबे हुए थे . इन राष्ट्रों में  एक समानता थी , इन प्रदेशों की जनता में राष्ट्रवाद की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी. आज ये देश विकसित हैं. इन राष्ट्रों ने विकसित  होने मे 20 साल से कम  का समय लिया है  . 

महर्षि वेदव्यास के अनुसार – संघे शक्ति कलि युगे . अर्थात कलयुग मे संगठन ही शक्ति है . ऋग्वेद के संगठन मंत्र के अनुसार :- सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् --- आप परस्पर एक होकर रहें, परस्पर मिलकर प्रेम से वार्तालाप करें  समान मन होकर ज्ञान प्राप्त करें. आप सभी  एकमत होकर व विरोध त्याग करके अपना काम करें. अथर्ववेद (6.64.2) में समानो मंत्रः समितिः  - - समानं चेतो अभिसंविशध्वम् । मनुष्यों के विचार तथा सभा सबके लिए समान हो कहा गया है. एक विचार एवं सबको समान मौलिक शक्ति मिलने की बात कही है. व्यक्ति और समाज में संघर्ष नहीं समन्वय होना चाहिए. व्यक्ति और समाज का संबंध परस्परपूरक ,  परस्परनुकुल तथा परस्पर सहयोग से होना चाहिए . इसमें जातिवाद , वर्गवाद , सांप्रदायवाद का कोई स्थान नहीं. व्यक्ति की पूर्णता ही समाज की पूर्णता का माप है  . व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं समाजहित परस्पर विरोधी नहीं हैं . 

भारतीय संस्कृति शिक्षा पर आधारित थी. शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आन्तरिक, अध्यात्मिक, रचनात्मक मानसिक विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त प्रणाली, नियम, विधि और व्यवस्था विकसित करना था. शिक्षा प्रणाली गुणात्मक और भारतीय दर्शन पर आधारित थी जो नैतिकता, सेवाभाव, त्याग , समर्पण , एकता और कर्तव्य भाव से परिपूर्ण थीं.  इसलिए आज की शिक्षा प्रणाली मे नैतिक शिक्षा, रचनात्मक मानसिक और आत्मिक विकास और भारतीय सभ्यता के अनुसार कर्तव्य भाव का ज्ञान तथा  अनुभूति एक आवश्यक विषय होना चाहिए . अनुशासित मर्यादापूर्ण आचरण, एकता,  शारीरिक दृढ़ता के लिए खेल , योग और आसन , विज्ञान , प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति और राष्ट्रीयता को भी अनिवार्य  रूप से हरेक बालक को पढाना राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य होना चाहिए. विज्ञान और अनुसंधान को प्राथमिकता और प्रोत्साहन मिले और इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संगठन उचित निवेश करें ऐसी व्यवस्था बनानी होगी . दक्ष का पक्ष हमारा लक्ष्य होना चाहिए.

 आज वोट बैंक की रणनीति के तहत भारतीय समाज को तोड़ा जा रहा है और सामाजिक सदभाव की भावना को नुकसान पहुंचाया जा रहा है . भ्रष्टाचार, शोषण, वर्गसंघर्ष से राष्ट्रीय भावना को गहरी चोट पहुँच रही है.दलित, गरीब, पिछड़े और वंचित समाज का विकास नहीं हो रहा है . हाँ जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले नेताओं का और उनके परिवार का  जबर्दस्त आर्थिक- सामाजिक और राजनीतिक विकास अवश्य हुआ है. इन नेताओं ने अपने ही जाति और धर्म के लोगों के हक को लूट कर अपनी झोली भरी है, जिससे राष्ट्र 76 साल के बाद भी, अपने आर्थिक विकास काफी पीछे हो गया है. भारतीय अर्थव्यवस्था और गणतन्त्र को भारत के अंदरूनी शक्तियों ने ही खोखला किया है. कानुन व्यवस्था जो आर्थिक विकास का अहम स्तम्भ है ,रस्म आदायगी ही रह गयी है. न्यायपालिका जो संविधान की जिम्मेवार संरक्षक है, के न्यायालयों में लम्बित लाखों मुकदमों में न्याय में देरी के कारण अन्याय है. न्याय व्यवस्था और संविधान कर्तव्य प्रधान हो, विधान के राज्य( रूल ऑफ लॉ ) से संचालित हो आज की सबसे अहम जरूरत है .

संसार में सब कुछ निर्माण करना बहुत सरल है, परन्तु व्यक्ति का निर्माण करना अत्यन्त कठिन काम है. इसलिए चाणक्य ने कहा है- इषु: हन्यात् नवा हन्यात् इषुमुक्ते धन्ष्मत: किन्तु बुध्दिता हन्यात् राष्ट्रं राजकम् । बुध्दिमतो पृष्टा हन्यात् राष्ट्रं सराजकम्॥बुध्दिमान की बुध्दि ठीक से चलने लगे तो अपनी बुध्दि की उत्कृष्टता से राष्ट्र और राजा दोनों का परिवर्तन कर सकता है. इसलिए यह सिद्ध बात है कि प्रबुध्दजन चिन्तन करें तो बहुत कुछ कर सकते हैं. समाज में हो रहे नैतिक गिरावट के लिए बुध्दिजीवियों की अकर्मन्यता अधिक जिम्मेवार है, बनिस्पत कि आम आवाम द्वारा किए जा रहे निकृष्ट कर्म. व्यक्ति निर्माण से मनुष्य के शरीर–बुद्धि-आत्मा सबका विकास हो , यही भारतीय जीवनदृष्टि है, जिसे हमें पुनः प्राप्त करना है .


भारतीय अर्थव्यवस्था दशा और दिशा

 

भारत एक समय मे सोने की चिडिया कहलाता था. आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार पहली सदी से लेकर दसवीं सदी तक भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी. पहली सदी में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) विश्व के कुल जीडीपी का 32.9% था ; सन् 1000 में यह 28.9% था ; और सन् 1700 में 24.4% था.  ईस्वी सन् एक  से लेकर लंबे और वक्त तक भारत और चीन दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं. भारत पहले नंबर पर, तो चीन दूसरे नंबर पर था. लेकिन यह स्थिति तब थी, जब उत्पादकता प्रौद्योगिकी आधारित नहीं थी .

भारतीय और चीनी धातु, यौगिकों और रसायनशास्त्र के प्रथम जानकार एवं उपभोगी थे. यहीं से विश्व के अन्य भागों में इन विद्याओं का प्रचार-प्रसार हुआ. यदि हम भारत और चीन की प्राचीन संस्कृतियों का अध्ययन करें तो पाते हैं कि सूती-रेशमी वस्त्र निर्माण, जरीदार कड़ाई-टंकाई और मनभावन रंगो की अच्छी छपाई आदि अनेक चीजें दोनों जगह विकसित थी और यहाँ से पूरे विश्व मे निर्यात की जाती थी . प्राचीन भारत में  लघु एवं कुटीर उद्योगों की प्रधानता थी आज से दो हजार वर्ष पूर्व भारत का सूती वस्त्र एवं इस्पात उद्योग विश्व में प्रसिद्ध था. प्राचीन भारत मे हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग लगभग हर ग्राम मे मौजूद थी . यहाँ इन ग्रामों के उद्योग इतने विकसित थे की वे लगभग हर नागरिक को  रोजगार उपलब्ध कराते थे.  ग्राम और पंचायत विकसित और स्वलंबी थे और अपनी जरूरत की सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन  स्थानीय इकाइयों के माध्यम से कर लेते थे. हर छोटे पंचायत और  तालुके मे स्थानीय बाज़ार लगते थे जहां आम अवाम  को अपनी जरूरतों की सारी वस्तुएँ उपलब्ध थीं. प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्था एक स्वलम्बी और विकेंद्रीकृत व्यवस्था थी,जहां आर्थिक विकास का केंद्र सीमित व्यक्तियों तक नहीं होकर पूरे समाज के सर्वांगीण विकास पर केन्द्रित था. यह वस्तुतः भारतीय दर्शन और संस्कृति पर आधारित था जो “सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय” पर आधारित  था

प्राचीन भारत में  कार्य विभाजन की एक प्रथा थी जिसे वर्ण प्रथा के नाम से जाना जाता था.  कार्य विभाजन  के प्रधान अंश वैश्य थे जो उद्यमियों का काम जैसे  खेती, पशुपालन, शिल्पिकार , कामगार तथा व्यापार आदि थे. ब्राह्मण धर्म प्रचार का कार्य करते थे जिनका उद्देश्य समानता और आचार-संहिता के आधार पर कानून बनाना, शिक्षा तथा लोककल्याण होता था. क्षत्रीयों के लिए राजशासन एवं रक्षा का कार्य निर्धारित था. तीनों वर्ग अपने-अपने कार्य में प्रवीण थे तथा समाज में अपने कर्म के आधार पर प्रतिष्ठित थे. शुद्र वर्ण का कार्य जैसे कि झाड़ू लगाना, लाश जलाना और अपराधियों को सजा देना,  आदि  था .जिन  वैश्यों  एवं शुद्रों में सामर्थ  व योग्यता थी, वे अपने मकसद एवं प्रतिष्ठा को ऊँचा कर सकते थे तथा उन्हें उन्नत वर्ण प्रदान किया जाता था. याज्ञवल्यक्य धर्मशास्त्र (धार्मिक कानून) के निर्देशानुसार शूद्र वर्ण को वैश्यों के काम जैसे कि कृषि, व्यापार और कला आदि कार्यों को करने की अगर उनमे यथोचित्त योग्यता हो, की इजाजत थी. इसलिए यह एक सर्वमान्य सच्चाई  है की वर्ण प्रथा या जाति प्रथा पौराणिक काल की एक श्रम विभाजन की प्रथा थी, जिसका उपयोग हमारे पूर्वजों ने इस महान राष्ट्र को आर्थिक महाशक्ति के रूप में विकसित करने में किया. भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है. उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं..

प्राचीन भारत औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था. रामायण और महाभारत काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिक रूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था. प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था. उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर अरब और यूनान के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे. उनके पास अपने अपने कानून होते थे. संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था. सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था. महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था. गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी. ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था.

प्राचीन विचारकों ने वार्ता शब्द का प्रयोग राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए किया जाता था . कौटिल्य ने इसके अंतर्गत कृषि , पशुपालन और व्यापार को शामिल किया था . इन विद्वानों  के अनुसार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का इतना महत्व था की कमांन्दक ने कहा की यदि वह नार हो गयी तो संसार भी निर्जीव हो जाएगा . महाभारत के अनुसार वार्ता पर ही सारा संसार आधारित है . राजा को वार्ता का ज्ञान कराने के लिए विशेषज्ञों की सहायता ली जाती थी . कौटिल्य ने वार्ता  शब्द के स्थान पर अर्थशास्त्र का प्रयोग किए जिसके अंतर्गत  अर्थशास्त्र, राजनीतिशस्त्र, नीतिशास्त्र ,दर्शन , न्यायशास्त्र और सैन्य विज्ञान को सम्मिलित किया गया .  इसका संयुक्त अध्ययन मनुष्य के लिए आवश्यक है . आर्थिक उपदेशों मे स्वच्छ और नैतिक जीवन पर  बल दिया गया  है . शुक्र के अनुसार , अर्थशास्त्र वह विज्ञान है , जो धर्म के उपदेशों और नियमों तथा उचित जीवन निर्वाहन के साधनों के अनुसार सम्राट के कार्यों अथवा प्रशासन के कार्यों अथवा प्रशासन की व्याख्या करता है . भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे धर्मके नाम से जाना जाता था,  के द्वारा होता था. धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्त्तव्य-संहिता का निर्धारण करता था. धर्म का अर्थ यहाँ  व्यवहारिक  नियम और कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया है जैसे सामाजिक धर्म,राष्ट्रधर्म , पितृधर्म , पुत्रधर्म इत्यादि . इसलिए प्राचीन काल मे समाज कर्तव्य प्रधान था जिसमे एक व्यक्ति का कर्तव्य, स्वतः दूसरे का अधिकार बन जाता था . इस काल मे कल्याणकारी राज्य संबंधीत विचार का बहुत महत्व था , जहां जनता के आर्थिक संपन्नता का दायित्व राज्य पर होता था .  हिन्दू राजा स्वयं को विष्णु (हिन्दूओं के  पालक ईश्वर) का प्रतिनिधि मानते थे और हिन्दू धर्म एवं मान्यताओं के अनुसार राजधर्म का पालन करते थे.

अठारहवीं सदी तक अग्रेजों ने भारतीय उद्योगों  को पूरी तरह से नष्ट कर एक ऐसी  केंदीकृत अर्थव्यवस्था को जन्म दिया जिसका केंद्र ब्रिटेन  था . ब्रिटिश काल में भारत की जनता और उसकी अर्थव्यवस्था का जमकर शोषण व दोहन हुआ जिसके फलस्वरूप 1947 में आज़ादी के समय  भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सुनहरी इतिहास का एक खंडहर मात्र रह गई.

आधुनिक भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. अप्रैल 2014  में जारी रिपोर्ट में वर्ष 2011 के विश्लेषण में विश्व बैंक ने "क्रयशक्ति समानता" (परचेज़िंग पावर पैरिटी) के आधार पर भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था घोषित किया गया है  .क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर है, जनसंख्या में इसका दूसरा स्थान है और केवल 2.4% क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व की जनसंख्या के 17% भाग को शरण प्रदान करता है. 2017 में भारतीय अर्थव्यवस्था मानक मूल्यों (सांकेतिक) के आधार पर विश्व का पाँचवा सबसे बड़ा अर्थव्यवस्था है. भारत का सकल घरेलू उत्पाद अनुमान के मुताबिक 2021-22 मे 147.36 लाख करोड़ 8.7 %  , जो  वर्ष 2020-21 के 135.58 लाख करोड़  6.6 %से अधिक है. विश्व निर्यात में भारत के व्यापारिक निर्यात का हिस्सा 1990 के 0.5 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 1.7 प्रतिशत हो गया है.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी वार्षिक राष्ट्रीय आय और  जीडीपी  2019-20 के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 2019-20 के दौरान 1,35,050 रुपये अनुमानित है, जो 6.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है, जबकि 2018-19 के दौरान 1,26,406 रुपये की वृद्धि दर 10.0 प्रतिशत है. भारत में अमीर और गरीब की खाई बढ़ती जा रही है  10 % लोग कुल राष्ट्रीय आय का 57% संपत्ति पर अधिकार  जमाये बैठे हैं , इसमे से 22% आय 1% लोगों के पास केन्द्रित है , जबकि वर्ल्ड इनईकुयालिटी रिपोर्ट 2022 के अनुसार वर्ष  2021 में  50% लोगों पास मात्र 13% राष्ट्रीय आय का हिस्सा है .  आधारभूत संरचनाओं  जैसे रोड , पोर्ट, यातायात, संचार, बिजली और ऊर्जा व्यवस्था का विकास तो बहुत हुआ है परंतु  जनसंख्या मे अत्यधिक वृद्धि के कारण जनसुविधाओं की कमी हो रही है , जगह जगह झुग्गी  झोपड़ियाँ , सफाई और शुद्ध पेय जल की कमी , स्वास्थ्य संबन्धित सुविधाओं का अभाव , शिक्षा के क्षेत्र की विसंगतियाँ, बेरोजगारी  इत्यादि समस्याएँ विकराल रूप धारण किए हुए है. आज भारतवर्ष  कच्चे  पेट्रोलियम तेल , खाद्य तेल, उच्च तकनीक और उसपर आधारित कल, पुर्जों के  समानों के लिए विदेशों पर निर्भर करता है . भारतीय अर्थव्यवस्था आज कई मामलों में वैश्विक अर्थव्यवस्था जुड़ जाने के कारण विश्व में किसी भी आकस्मिक  घटना  या  वैश्विक संकट से प्रभावित होती है. आधुनिक भारत आज कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर नहीं है.  ऊर्जा के क्षेत्र मे आत्मनिभर नहीं होने के कारण हमारी विदेशी मुद्रा  का एक बड़ा हिस्सा कच्चे  पेट्रोलियम तेल के आयात मे खर्च हो जाता है जिससे विदेशी व्यापार में हमेशा घाटे की स्थिति बनी  रहती है . हम निर्यात प्रधान देश न बनकर आज  आयात प्रधान देश हैं .

अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास की गणना, मात्रात्मक प्रगति के आधार पर की जाती है. इसका तात्पर्य यह है कि वृद्धि शब्द यहाँ मात्रात्मक प्रगति की बात करते हैं. वहीं प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास मात्रात्मक के साथ गुणात्मक प्रगति की बात करते हैं. अधिक आय के अलावा लोग बराबरी का व्यवहार ,स्वतंत्रता ,सुरक्षा और समतामूलक समाज की इच्छा भी रखते हैं. विकास के लिए,लोग मिले-जुले लक्ष्य को देखते हैं, जहां  लोगों  को रोजगार हो, जनता सुखी हो और सरकार मानवीय मूल्यो का आदर करते हुए  जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं का सृंजन करती हो .

भारतीय समाज सेवा , परमार्थ और त्याग  पर आधारित है जहां हर व्यक्ति अपने समर्थ के अनुसार समाज और राष्ट्र के प्रगति में अपना योगदान करना अपना परम कर्तव्य समझता रहा है . विचार-स्वातन्त्रय के इस युग में मानव-कल्याण के लिए अनेक विचारधाराओं को पनपने का अवसर मिला है. इसमे साम्यवाद, पूँजीवाद, अन्त्योदय, सर्वोदय आदि मुख्य है. किन्तु चराचर जगत् को संतुलित, स्वस्थ व सुंदर बनाकर मनुष्य मात्र पूर्णता की ओर ले जा सकने वाला एकमात्र प्रक्रम सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जीवन-विज्ञान, जीवन-कला व जीवन-दर्शन है.

भारतीय शिक्षा और राष्ट्रीयता

 

प्राचीन काल में शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली भारत में अस्तित्व में थी. उपनिषदों मे इसके उल्लेख है जहाँ आठ से दस वर्ष की आयु के बच्चे गुरु के सान्निध्य मे रह कर विद्या अध्ययन किया करते थे. शिक्षा, समाज-कल्याण एवं धार्मिक आचरण हेतु किए गए प्रयासों की व्यवस्थित प्रणाली थी. शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आन्तरिक, अध्यात्मिक, रचनात्मक मानसिक विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त प्रणाली, नियम, विधि और व्यवस्था विकसित करना था. यह प्रणाली इस सिद्धान्त पर आधारित थी कि मनुष्य के विकास का अभिप्राय उसकी बुद्धि एवं स्मरण शक्ति का स्वाभाविक सामर्थ्य और रचनात्मक विकास हो सके. संसार के सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध विश्वविद्यालय मे भारत का नालंदा और तक्षशिला आदि विश्वविद्यालय सुविख्यात थे .इन विश्वविद्यालयों में देश ही नहीं, विदेश के विद्यार्थी भी अध्ययन के लिए आते थे. सनातन या हिन्दू समाज प्राचीन काल से ही अपनी प्रजा या समाज को शिक्षित करना अपना मौलिक कर्तव्य समझती थी.यही वह आधार था जिसपर हिन्दू संस्कृतिस्थापित थी. भारतवर्ष में प्रथम अंग्रेजी स्कूल 1811 में खोला गया, इससे पहले भारतवर्ष में लगभग 732000 गुरुकुल थे.

 आज की शिक्षा प्रणाली को प्राय: लोग मैकाले शिक्षा प्रणाली के नाम से पुकारते हैं. मैकाले के शब्दों में: “मैं भारत के कोने कोने में घूमा हूँ. इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे. जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ कि हम इसकी पुरानी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था उसकी संस्कृति को बदल डालें.” उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को खत्म करने और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को लागू करने का प्रारूप तैयार किया. अंग्रेज़ो को समझ मे आ गया था कि उनकी संख्या नगण्य है. इतने बड़े राष्ट्र पर शासन करने हेतु उन्हे ऐसे भारतीय मूल के अंग्रेजों का निर्माण करना होगा, जो भारतीय जनता पर शासन कर सकें और जरूरत पड़ने पर उनका दमन भी कर सकें. इसके लिए मैकाले ने भारतियों को एक ऐसा पाठ्यक्रम पढ़ाया जिसमे भारतियों का पराक्रम, वीरता, ज्ञान, विज्ञान, परम्पराओं, गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति का उचिंत वर्णन या कोई उल्लेख ही नहीं था .बल्कि उसकी रचना इस प्रकार की गई जिससे हमारी एकता खण्डित हो. हमारी उत्कृष्ट कला, धर्म, दर्शन, इतिहास, सभ्यता और संस्कृति को नीचा और विकृत बनाने का भरपूर प्रयास किया गया और उसे पाठ्यक्रम में शामिल किया गया और इस प्रकार मानव सभ्यता का इतिहास ही बदल कर रख दिया. इसी दिशा में कार्य करते हुए उन्होंने हमारी वर्ण व्यवस्था जो वास्तव में कार्य निर्धारण की प्रथा थी, को जाति व्यवस्था में बदलने में भरपूर भूमिका निभाई और समाज के विभिन्न वर्गों और धर्मों के बीच परस्पर दूरी और एकता में खाई बनाने में पूरी जोर लगा दी और इसमें  कुछ हद तक सफल भी रहे . मेगास्थनीजने अपने भारत यात्रा के विवरण (चौथी शताब्दी ई॰पू॰) में यह स्पष्ट लिखा है कि भारतीय जाति प्रथा एक व्यवसाय-निर्धारण की व्यवस्था थी. यास्क मुनि के अनुसार – “जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः । अर्थात व्यक्ति जन्म से शूद्र है एवं संस्कार से वह द्विज बन सकता है .

 1700 ई०पूर्व से 1947ई० भारतवर्ष के चोल राजवंश, नंद साम्राज्य, मगध, मराठा साम्राज्य, मेवाड़ राजवंश, प्राचीन बिहार मे बसी गणराज्य, मौर्य साम्राज्य इत्यादि के वीर ,पराक्रमी और चक्रवर्ती सम्राटों के कार्यकाल का गौरवशाली इतिहास है. आर्यावर्त (भारतवर्ष) का इतिहास विभिन्न आक्रांताओं शक, यमन, कुषाण और यूनानी सम्राट का भी है जिन्होंने भारतीय संस्कृति के उत्कृष्ट परम्पराओं के साथ अपने को आत्मसात किया. इस कालखंड के घटनाओं का कोई भी उल्लेख अंग्रेजों द्वारा पढाये गए पाठ्यक्रम में नहीं शामिल किया गया.

 चोल शासकों ने अपनी विजय यात्रा में आज के केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, बंगाल और दक्षिण एशिया में पूरा हिंद महासागर व श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया में अंडमान-निकोबार, मलेशिया, थाईलैंड एवं इंडोनेशिया तक को फतह किया था.

 भारतवर्ष अंकगणित,ज्यामिति,त्रिकोणमिति, रसायन शास्त्र, विज्ञान, भूगोलशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र , शल्य चिकित्सा इत्यादि कई आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं का जन्मदाता है और आज के कुछ अविष्कार जो विदेशियों के नाम से दर्ज हैं वह वास्तव में भारत के ऋषि मुनियों की ही देन है. इसमें एक विशिष्ट स्थान कणाद मुनि का है जिन्होंने परमाणु के सिद्धांतों की खोज लगभग 2600 वर्ष पहले ही कर दी थीं. न्यूटन ने अपने शोधपत्र प्रिंसिपिया ऑफ मैथमैटिका में गति के तीन नियम बताये थे, जिसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति, गतिज ऊर्जा और मोमेंटम के बारे में सिद्धांत दिए गए थे, जबकि भारतीय दर्शनशास्त्र के वैशेषिक सूत्र के अनुसार आचार्य कणाद ने 600 ई० पूर्व में ही गति के नियमों और गुरुत्वाकर्षण शक्ति को स्थापित कर दिया था.

 इस्लाम का विस्तार 622ई. से मक्का मदीना में पैगम्बर मुहम्मद के आगमन से हुआ. जिन्होंने एक सेना संगठित करके 100 वर्षों में ही पूरे अरब में इस्लाम धर्म की स्थापना की. इसके समर्थकों के साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में अटलांटिक समुद्र से पूर्व में सिन्धु नदी तक और उत्तर में कैस्पियन सागर से दक्षिण में नील नदी की घाटी तक हो गया; जिसमें स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस का दक्षिणी भाग, उत्तरी अफ्रीका, सम्पूर्ण मिस्र, अरब, सीरिया, मेसोपोटामिया, आर्मीनिया, परशिया, सम्पूर्ण मध्य-एशिया, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध आदि सम्मिलित थे. इस्लामिक शासकों ने 712 ई० में ही भारत के सिन्ध प्रान्त पर कब्ज़ा कर लिया था, परन्तु इसके बाद इस्लामिक शासक आक्रमण करते रहे और हिन्दू राजाओं ने उनका डट कर मुकाबला किया और 1526 तक उन्हें खदेड़ते रहे .मुगलवंश ने 15261857ईस्वी में अपना प्रभुत्व भारत के कुछ भागों में जमा लिया था. इस क्रम में ऐसा समय  भी आया जब भारत वर्ष में राजपूतों की जनसंख्या घट कर मात्र 2 % रह गयी थी. परन्तु भारत के वीरों के इस काल खंड के संघर्ष, वीरता, मातृभूमि के प्रति बलिदान की गौरवगाथा को जानबूझ कर पाठक्रम में नहीं शामिल किया गया ना ही भारतीय इतिहास में इसका वर्णन है.  

 मुग़ल शासकों के आगमन के बाद हिन्दुओं को जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया. भारतवर्ष के अधिकांश मुसलमान धर्मान्तरित हैं इसलिए इनका रहन-सहन, खान-पान,व्यवहार, दीप जागृति के प्रति लगाव, त्योहारों में गाजे बाजे और संगीत, ताजिया निकलना और मजार का धार्मिक महत्त्व, ये सभी अरब देशों के मुसलमानों से बिलकुल भिन्न हैं.इसी कारण भारतीय मुसलमानों को अरब देशों के मुसलमान हिन्दू- मुसलमान के नाम से भी पुकारते हैं.

    मध्यकालीन (1206 ई॰-1761 ई॰) में  भक्ति विचारधारा ने जन्म लिया जिसका प्रचार प्रसार इस युग के ज्ञानी  हिन्दू और मुसलमान एवं सूफी संतों ने किया जिसमे रामदास चमार, कबीर बुनकर, रहीम, धन्ना जाट, सेना नाई, पीपा राजपूत, रामदास और चैतन्य महाप्रभु का नाम प्रमुखता से वर्णित है. धार्मिक विचारधारा ने धर्म, जाति और वर्गों की सारी सीमायें तोड़ते हुए हिन्दू समाज को एकता एवं समानता के सूत्र में पिरोते हुए उन्होंने हिन्दुत्व का सही अर्थों में प्रचार और प्रसार किया. मुसलमानों ने हिन्दुओं की तरह जीना सीख लिया, भारत को अपनी मातृभूमि माना. उनके खान-पान, कपड़े, आचार-विचार, कार्य-संस्कृति एवं जीवन शैली को अपनाया. धार्मिक विभिन्नता के बावजूद उनके रोजमर्रा के कार्यों में समानता थी .यह निःसन्देह इस वजह से था क्योंकि अधिकांश मुसलमान हिन्दू धर्मांतंरित थे,जो अपनी पुरानी आदतों एवं रहन-सहन को  सहज नहीं भूल पाए थे.

 ब्रिटिश राष्ट्र की जानकारी 43 ई० तक विश्व को नहीं थी . ऐतिहासिक वर्णनानुसार कोई 2000 साल ई॰पू॰ आर्य प्रजाति अपने मूल मातृभूमि से गमन कर पश्चिम एशिया  दक्षिण एवं पूर्व की ओर देशान्तर हुए, और भारतवर्ष मे आकर बस गए. आज ज़्यादातर भारतीय इसी इतिहास को सही मानते हैं. पश्चिमोत्तर भारत की व्याख्या प्रायः भारतीय इतिहास का सार है, जो मनु (भारतीय ग्रंथों के अनुसार प्रथम मानव) के आर्यावर्त्त के रूप में जाना जाता है. गुजरात मे समुद्री सीमाओं के अंदर जलमग्न द्वारिका नगरी की जानकारी सभी को है, वास्तव मे इस कालखंड को आधुनिक वैज्ञानिक गणनाकारों ने पल्स -1 अ का नाम दिया है.पृथ्वी का तापमान बढ्ने से 11,500 से 12,700 वर्ष ई०पूर्व समुद्र का जलस्तर में लगातार बढ़ोतरी होती गयी, जिसके कारण द्वारिका के साथ  कई प्राचीन भारतीय नगर जलमग्न हो गए. हमारी सभ्यता और संस्कृति का उद्भव वास्तव में  मानव उत्पत्तिकाल से ही वर्णित है. ऋग्वेद और महाभारत के प्रथम स्कन्ध के अनुसार यह स्पष्ट होता है.

  आजादी के 70 सालों के बाद तक भारत में अंग्रेजी निर्मित पाठ्यक्रम ही पढ़ाया जाता रहा है. हद तो तब हो गयी कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने भी अपनी पुस्तक “डिस्कवरी ऑफ़ इन्डिया” में इसी ब्रिटिश निर्मित इतिहास का वर्णन किया और दूरदर्शन पर इसपर धारावाहिक शो का प्रसारण भी किया.ऐसी कहावत  हैं कि जो सभ्यता अपने इतिहास को भूल जाती है इतिहास उसे भुला देता है .

 ब्रिटिश शासकों के इतने वर्ष के प्रयत्न के बावजूद भारतीय परम्पराएँ, रहन-सहन, धर्म, सभ्यता और सांस्कृतिक समानता और निर्भरता के कारण भारत का हर वर्ग को एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है. यह लगाव  विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा दिखता है. इसलिए हिंदुत्व नामित भारतीय संस्कृति पराधीन होने के बावजूद भी जीवित है  और इसी लिए हमारी राष्ट्रीयता जीवित है और आज आजाद भारत में उसका विकास हो रहा है .

 परन्तु आज कुछ राजनैतिक पार्टियों और विदेशी ताकतों को अपने निहित स्वार्थ के लिए अंग्रेजो की नीति ही पसंद आती है. वे हर छोटी सी बात पर देश को विभाजित करने और जलाने पर आतुर हो जाते हैं. जिससे भारतीय राष्ट्रीयता पर गंभीर संकट के बादल छाये हुए हैं .  

23 सितम्बर 2022 के आज के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित