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भारतीय अर्थव्यवस्था दशा और दिशा

 

भारत एक समय मे सोने की चिडिया कहलाता था. आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार पहली सदी से लेकर दसवीं सदी तक भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी. पहली सदी में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) विश्व के कुल जीडीपी का 32.9% था ; सन् 1000 में यह 28.9% था ; और सन् 1700 में 24.4% था.  ईस्वी सन् एक  से लेकर लंबे और वक्त तक भारत और चीन दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं. भारत पहले नंबर पर, तो चीन दूसरे नंबर पर था. लेकिन यह स्थिति तब थी, जब उत्पादकता प्रौद्योगिकी आधारित नहीं थी .

भारतीय और चीनी धातु, यौगिकों और रसायनशास्त्र के प्रथम जानकार एवं उपभोगी थे. यहीं से विश्व के अन्य भागों में इन विद्याओं का प्रचार-प्रसार हुआ. यदि हम भारत और चीन की प्राचीन संस्कृतियों का अध्ययन करें तो पाते हैं कि सूती-रेशमी वस्त्र निर्माण, जरीदार कड़ाई-टंकाई और मनभावन रंगो की अच्छी छपाई आदि अनेक चीजें दोनों जगह विकसित थी और यहाँ से पूरे विश्व मे निर्यात की जाती थी . प्राचीन भारत में  लघु एवं कुटीर उद्योगों की प्रधानता थी आज से दो हजार वर्ष पूर्व भारत का सूती वस्त्र एवं इस्पात उद्योग विश्व में प्रसिद्ध था. प्राचीन भारत मे हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग लगभग हर ग्राम मे मौजूद थी . यहाँ इन ग्रामों के उद्योग इतने विकसित थे की वे लगभग हर नागरिक को  रोजगार उपलब्ध कराते थे.  ग्राम और पंचायत विकसित और स्वलंबी थे और अपनी जरूरत की सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन  स्थानीय इकाइयों के माध्यम से कर लेते थे. हर छोटे पंचायत और  तालुके मे स्थानीय बाज़ार लगते थे जहां आम अवाम  को अपनी जरूरतों की सारी वस्तुएँ उपलब्ध थीं. प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्था एक स्वलम्बी और विकेंद्रीकृत व्यवस्था थी,जहां आर्थिक विकास का केंद्र सीमित व्यक्तियों तक नहीं होकर पूरे समाज के सर्वांगीण विकास पर केन्द्रित था. यह वस्तुतः भारतीय दर्शन और संस्कृति पर आधारित था जो “सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय” पर आधारित  था

प्राचीन भारत में  कार्य विभाजन की एक प्रथा थी जिसे वर्ण प्रथा के नाम से जाना जाता था.  कार्य विभाजन  के प्रधान अंश वैश्य थे जो उद्यमियों का काम जैसे  खेती, पशुपालन, शिल्पिकार , कामगार तथा व्यापार आदि थे. ब्राह्मण धर्म प्रचार का कार्य करते थे जिनका उद्देश्य समानता और आचार-संहिता के आधार पर कानून बनाना, शिक्षा तथा लोककल्याण होता था. क्षत्रीयों के लिए राजशासन एवं रक्षा का कार्य निर्धारित था. तीनों वर्ग अपने-अपने कार्य में प्रवीण थे तथा समाज में अपने कर्म के आधार पर प्रतिष्ठित थे. शुद्र वर्ण का कार्य जैसे कि झाड़ू लगाना, लाश जलाना और अपराधियों को सजा देना,  आदि  था .जिन  वैश्यों  एवं शुद्रों में सामर्थ  व योग्यता थी, वे अपने मकसद एवं प्रतिष्ठा को ऊँचा कर सकते थे तथा उन्हें उन्नत वर्ण प्रदान किया जाता था. याज्ञवल्यक्य धर्मशास्त्र (धार्मिक कानून) के निर्देशानुसार शूद्र वर्ण को वैश्यों के काम जैसे कि कृषि, व्यापार और कला आदि कार्यों को करने की अगर उनमे यथोचित्त योग्यता हो, की इजाजत थी. इसलिए यह एक सर्वमान्य सच्चाई  है की वर्ण प्रथा या जाति प्रथा पौराणिक काल की एक श्रम विभाजन की प्रथा थी, जिसका उपयोग हमारे पूर्वजों ने इस महान राष्ट्र को आर्थिक महाशक्ति के रूप में विकसित करने में किया. भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है. उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं..

प्राचीन भारत औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था. रामायण और महाभारत काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिक रूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था. प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था. उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर अरब और यूनान के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे. उनके पास अपने अपने कानून होते थे. संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था. सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था. महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था. गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी. ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था.

प्राचीन विचारकों ने वार्ता शब्द का प्रयोग राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए किया जाता था . कौटिल्य ने इसके अंतर्गत कृषि , पशुपालन और व्यापार को शामिल किया था . इन विद्वानों  के अनुसार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का इतना महत्व था की कमांन्दक ने कहा की यदि वह नार हो गयी तो संसार भी निर्जीव हो जाएगा . महाभारत के अनुसार वार्ता पर ही सारा संसार आधारित है . राजा को वार्ता का ज्ञान कराने के लिए विशेषज्ञों की सहायता ली जाती थी . कौटिल्य ने वार्ता  शब्द के स्थान पर अर्थशास्त्र का प्रयोग किए जिसके अंतर्गत  अर्थशास्त्र, राजनीतिशस्त्र, नीतिशास्त्र ,दर्शन , न्यायशास्त्र और सैन्य विज्ञान को सम्मिलित किया गया .  इसका संयुक्त अध्ययन मनुष्य के लिए आवश्यक है . आर्थिक उपदेशों मे स्वच्छ और नैतिक जीवन पर  बल दिया गया  है . शुक्र के अनुसार , अर्थशास्त्र वह विज्ञान है , जो धर्म के उपदेशों और नियमों तथा उचित जीवन निर्वाहन के साधनों के अनुसार सम्राट के कार्यों अथवा प्रशासन के कार्यों अथवा प्रशासन की व्याख्या करता है . भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे धर्मके नाम से जाना जाता था,  के द्वारा होता था. धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्त्तव्य-संहिता का निर्धारण करता था. धर्म का अर्थ यहाँ  व्यवहारिक  नियम और कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया है जैसे सामाजिक धर्म,राष्ट्रधर्म , पितृधर्म , पुत्रधर्म इत्यादि . इसलिए प्राचीन काल मे समाज कर्तव्य प्रधान था जिसमे एक व्यक्ति का कर्तव्य, स्वतः दूसरे का अधिकार बन जाता था . इस काल मे कल्याणकारी राज्य संबंधीत विचार का बहुत महत्व था , जहां जनता के आर्थिक संपन्नता का दायित्व राज्य पर होता था .  हिन्दू राजा स्वयं को विष्णु (हिन्दूओं के  पालक ईश्वर) का प्रतिनिधि मानते थे और हिन्दू धर्म एवं मान्यताओं के अनुसार राजधर्म का पालन करते थे.

अठारहवीं सदी तक अग्रेजों ने भारतीय उद्योगों  को पूरी तरह से नष्ट कर एक ऐसी  केंदीकृत अर्थव्यवस्था को जन्म दिया जिसका केंद्र ब्रिटेन  था . ब्रिटिश काल में भारत की जनता और उसकी अर्थव्यवस्था का जमकर शोषण व दोहन हुआ जिसके फलस्वरूप 1947 में आज़ादी के समय  भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सुनहरी इतिहास का एक खंडहर मात्र रह गई.

आधुनिक भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. अप्रैल 2014  में जारी रिपोर्ट में वर्ष 2011 के विश्लेषण में विश्व बैंक ने "क्रयशक्ति समानता" (परचेज़िंग पावर पैरिटी) के आधार पर भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था घोषित किया गया है  .क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर है, जनसंख्या में इसका दूसरा स्थान है और केवल 2.4% क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व की जनसंख्या के 17% भाग को शरण प्रदान करता है. 2017 में भारतीय अर्थव्यवस्था मानक मूल्यों (सांकेतिक) के आधार पर विश्व का पाँचवा सबसे बड़ा अर्थव्यवस्था है. भारत का सकल घरेलू उत्पाद अनुमान के मुताबिक 2021-22 मे 147.36 लाख करोड़ 8.7 %  , जो  वर्ष 2020-21 के 135.58 लाख करोड़  6.6 %से अधिक है. विश्व निर्यात में भारत के व्यापारिक निर्यात का हिस्सा 1990 के 0.5 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 1.7 प्रतिशत हो गया है.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी वार्षिक राष्ट्रीय आय और  जीडीपी  2019-20 के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 2019-20 के दौरान 1,35,050 रुपये अनुमानित है, जो 6.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है, जबकि 2018-19 के दौरान 1,26,406 रुपये की वृद्धि दर 10.0 प्रतिशत है. भारत में अमीर और गरीब की खाई बढ़ती जा रही है  10 % लोग कुल राष्ट्रीय आय का 57% संपत्ति पर अधिकार  जमाये बैठे हैं , इसमे से 22% आय 1% लोगों के पास केन्द्रित है , जबकि वर्ल्ड इनईकुयालिटी रिपोर्ट 2022 के अनुसार वर्ष  2021 में  50% लोगों पास मात्र 13% राष्ट्रीय आय का हिस्सा है .  आधारभूत संरचनाओं  जैसे रोड , पोर्ट, यातायात, संचार, बिजली और ऊर्जा व्यवस्था का विकास तो बहुत हुआ है परंतु  जनसंख्या मे अत्यधिक वृद्धि के कारण जनसुविधाओं की कमी हो रही है , जगह जगह झुग्गी  झोपड़ियाँ , सफाई और शुद्ध पेय जल की कमी , स्वास्थ्य संबन्धित सुविधाओं का अभाव , शिक्षा के क्षेत्र की विसंगतियाँ, बेरोजगारी  इत्यादि समस्याएँ विकराल रूप धारण किए हुए है. आज भारतवर्ष  कच्चे  पेट्रोलियम तेल , खाद्य तेल, उच्च तकनीक और उसपर आधारित कल, पुर्जों के  समानों के लिए विदेशों पर निर्भर करता है . भारतीय अर्थव्यवस्था आज कई मामलों में वैश्विक अर्थव्यवस्था जुड़ जाने के कारण विश्व में किसी भी आकस्मिक  घटना  या  वैश्विक संकट से प्रभावित होती है. आधुनिक भारत आज कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर नहीं है.  ऊर्जा के क्षेत्र मे आत्मनिभर नहीं होने के कारण हमारी विदेशी मुद्रा  का एक बड़ा हिस्सा कच्चे  पेट्रोलियम तेल के आयात मे खर्च हो जाता है जिससे विदेशी व्यापार में हमेशा घाटे की स्थिति बनी  रहती है . हम निर्यात प्रधान देश न बनकर आज  आयात प्रधान देश हैं .

अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास की गणना, मात्रात्मक प्रगति के आधार पर की जाती है. इसका तात्पर्य यह है कि वृद्धि शब्द यहाँ मात्रात्मक प्रगति की बात करते हैं. वहीं प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास मात्रात्मक के साथ गुणात्मक प्रगति की बात करते हैं. अधिक आय के अलावा लोग बराबरी का व्यवहार ,स्वतंत्रता ,सुरक्षा और समतामूलक समाज की इच्छा भी रखते हैं. विकास के लिए,लोग मिले-जुले लक्ष्य को देखते हैं, जहां  लोगों  को रोजगार हो, जनता सुखी हो और सरकार मानवीय मूल्यो का आदर करते हुए  जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं का सृंजन करती हो .

भारतीय समाज सेवा , परमार्थ और त्याग  पर आधारित है जहां हर व्यक्ति अपने समर्थ के अनुसार समाज और राष्ट्र के प्रगति में अपना योगदान करना अपना परम कर्तव्य समझता रहा है . विचार-स्वातन्त्रय के इस युग में मानव-कल्याण के लिए अनेक विचारधाराओं को पनपने का अवसर मिला है. इसमे साम्यवाद, पूँजीवाद, अन्त्योदय, सर्वोदय आदि मुख्य है. किन्तु चराचर जगत् को संतुलित, स्वस्थ व सुंदर बनाकर मनुष्य मात्र पूर्णता की ओर ले जा सकने वाला एकमात्र प्रक्रम सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जीवन-विज्ञान, जीवन-कला व जीवन-दर्शन है.

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