भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे ‘धर्म’ के नाम से जाना जाता था, के द्वारा होता था। धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्त्तव्य-संहिता का निर्धारण करता था।
राष्ट्रधर्म के बारे में प्रचलित शास्त्रोक्त कहावत् -‘ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’ के अंर्तगत जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढकर बताया गया है। मातृभूमि को स्वाधीन रखने का ऋग्वेद में स्पष्ट आहव्ान है- यतेमहि स्वराज्ये। भारतवर्ष में ऋग्वेद में ‘गणांना त्वां गणपति ’ आया है। गण और जन ऋग्वेद में हैं। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म से आदर्श गणतंत्र कीे परिभाषा पूछी । भीष्म ने (शातिपर्व 107.14) बताया कि भेदभाव से गण नष्ट होते हैं।अथर्ववेद (6.64.2) में समानो मंत्रः समितिः - - समानं चेतो अभिसंविशध्वम्।। मनुष्यों के विचार तथा सभा सबके लिए समान हो कहा गया है। एक विचार एवं सबको समान मौलिक शक्ति मिलने की बात कही है। विधान के राज्य या धर्मराज्य की संक्षिप्त परिभाषा भी यही है। गण के लिए आंतरिक संकट बड़ा होता है- आभ्यंतर रक्ष्यमसा बाह्यतो भयम् , बाह्य उतना बड़ा नहीं। गणतंत्र के मूल शब्द गण की अवधारणा अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य और आचार्य पाणिनी के जमाने में भी वर्णित है। उस काल में समाज के प्रतिनिधियों के दलों को गण कहा जाता था और यही मिलकर सभा और समितियां बनाते थे।
किसी ऐसे काल्पिनिक छोटी शासन व्यवस्था में भी, सभी फैसले बहुसंख्यक वोट से हो, ऐसा संभव नहीं । जनता का शासन तभी संभव है जब बहुसंख्यक समाज अपने मत द्वारा ऐसा विधान बनाए जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति के उपर, पुलिस और न्यायालय द्वारा कराया जाए। अलोकतांत्रिक तानाशाह अपने मर्जी को संविधान और कानून द्वारा जनता पर थोप सकते हैं। जो समाज राष्ट्रों के निर्माण के पूर्व किसी प्राकृतिक नियम या मर्यादा को तरजीह देती हैं और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील है वे विधान के द्वारा निर्मित राज्य का सर्मथन करती हैं।एक निरंकुश तानाशाह कानून के नियमों से लैस होकर मानवाधिकारों की अवहेलना करता है। । किसी श्रेष्ठ कानून की संरचना के लिए विधि के विधान की आवश्यकता होती है। विधान के राज्य के बिना स्थिर बडे़ लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थायित्व और निरन्तरता की खूबियॉं और राष्ट्र को अक्षुण रखने की चाह के कारण ही विधान के राज्य को भेदभाव फैलाने वाले राजनेताओं के शासन पर प्रथमिकता मिलती है। गलती से या जानबूझकर कोई भी व्यक्ति नियंत्रण के अभाव में कानून का अनुपालन नहीं करना चाहता है। इसी प्रकार शासनाध्यक्ष या सांसद संविधान को अंगीकृत और आत्मार्पित करने की शपथ लेने के बावजूद, अपने स्वार्थवश या राजनैतिक कारणों से उसका गलत अर्थ निकालते हैं या उसकी अवहेलना करते हैं।
विधि का विधान सरकारों में वैद्यता स्थापित कर स्थिरता लाती है। मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रजातंत्र ये तीन मुख्य कारण/उद्देश्य हैं जिसके लिए जनता शासकों के शासन को सहन एवं सहयोग करती है। एक सरकार जो विधि बनाने में विधान के नियमों को नजरअंदाज करती है, वह न केवल इन तीन मूल्यों में कटौती करती है बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न करती है। जब विधान राज्य करता है तो कोई विशिष्ट आज्ञा दायित्व निर्वाहन के बीच नहीं आती। क्यूकिं हमे जनता की चिंता है इसलिए हम विधान के नियमों को प्रभावी तरीके से लागू और कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं। कानून और कर्तव्य का रिश्ता यहॉं उत्तरदायित्व का होता है।
समान्य परिभाषा में विधान राज्य या धर्मराज्य एक ऐसा तंत्र है जहॉं कानून जनता में सर्वमान्य हो; जिसका अभिप्राय( अर्थ ) स्पष्ट हो; तथा सभी व्यक्तियों पर समान रुप से लागू हो। ये राजनैतिक और नागरिक स्वतंत्रता को आदर्श मानते हुए उसका समर्थन करते है, जिससे कि मानवाधिकार की रक्षा में विश्व में अहम् भूमिका निभाई गई है। विधान के राज्य एवं उदार प्रजातंत्र में अतिगम्भीर सम्बन्ध है। विधान का राज्य व्यक्तिगत अधिकार एवं स्वतत्रंता को बल देता है, जो प्रजातांत्रिक सरकार का आधार है। सरकारें विधान के राज्य की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए जनता के अधिकारों के प्रति सचेत रहती हैं, वहीं एक संविधान ,जनता में कानून की स्वीकृति पर निर्भर करता है। विधि एवं विधान के राज्य में कुछ खास अन्तर हैं- जो सरकारें प्राकृतिक नियम , मर्यादा, व्यवहार विधि को आर्दश मानते हुए, किसी प्रकार के पक्षपात नहीं करती तथा न्याय के संस्थानों को प्राथमिकता देती हैं ,वे विधान द्वारा स्थापित होती हैं। दीनदयालजी द्वारा रचित जनसंघ के
राष्ट्र जीवन-दर्शन के छठे सूत्र (जो आज भारतीय जनता पार्टी का भी राष्ट्र जीवन-दर्शन है ) में आदर्श राष्ट्र के रूप में धर्मराज्य, एक असम्प्रदायिक राज्य या विधान का राज्य को स्वीकार किया है।
किसी राष्ट्र के जीवन में देखने के लिए एक वातायन होता है साहित्य, जो उस राष्ट्र के धर्म, कला, संस्कृति और मानवीय मूल्यो का भी सर्जक होता है। संविधान का स्थान इसमें प्रथम है।संविधान केवल एक लिखीत दस्तावेज नहीं वह राष्ट्र के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों का मार्गदर्शक भी होता है।स्वदेशी आंदोलन से मिली स्वतंत्रता के बाद निर्मित भारतीय संविधान के ज्यादातर तत्व विदेशी स्त्रोतों से है। बहुत कम ही बातें हैं जो भारतीय संस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हैं जिसे संविधान में शामिल किया गया है । जबकि यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है, विश्व की सबसे पुरानी गणराज्य बिहार के लिच्छवी( वैशाली) में कार्यरत थी। संविधान की संरचना के ढॉंचे का अधिकतर अंश औपनिवेशिक दासता के दिनों में पारित, भारत सरकार अधिनियम 1935 से बना है, जिसे दुर्भाग्यवश निरन्तरता और स्थिरता के आधार पर अपनाना जरूरी समझा गया। संविधान का भाग 3 में अंकित दार्शनिक भाग जो मौलिक अधिकारों से संबधित है का कुछ भाग, संघात्मक शासन प्रणाली, न्यायपालिका , अमेरिकन संविधान से शामिल किया गया है। भाग 4 में अंकित राज्य के नीति निर्देशक तत्व आयरलैंड से, 4अ मे वर्णित मूल कर्त्तव्य सोवियत संघ से , राजनैतिक भाग जिसमे विधायिका और कार्यपालिका के संबन्ध और मंत्रीमंडल के उत्तरदायित्व, प्रक्रिया एवं विशेषाधिकार हैं ब्रिटेन से,गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था फ्रांस से, संघ और राज्यो का शक्तिविभाजन कनाडा से, जर्मनी से आपात उपबंध ,औस्ट्रेलिया से समवर्ती सूची। इन सबके बावजुद ब्रिटेन, यूरोपीय संघ तथा अन्य राष्ट्र मे मौजूद विधान के राज्य के सिद्धान्त भारतीय संविधान में पुर्ण रुप से लागू नहीं हैं , इसमें समता का सिद्धान्त प्रमुख है। कार्यपालिका और नौकरशाह के अधिकार आम जनता से अधिक हैं।
कहने को तो हम गणतंत्र है, पर इस गणतंत्र से गण गायब है , जनतंत्र से जन गायब है तथा तंत्र की तानाशाही है। जन और गण की भूमिका केवल मत देने तक रह गयी आज भी भारतीय गणराज्य की सफलता भारतीय एकता और संप्रभुता के समक्ष चुनौतियां अपनी जटिलता के साथ पूरी तरह मौजूद है। भारतीय गणतंत्र को भारत के अंदरूनी शक्तियों ने ही खोखला किया है।कानुन व्यवस्था रस्म आदायगी ही रह गयी है।
न्यायपालिका जो संविधान की जिम्मेवार संरक्षक है, के न्यायालयों में लम्बित लाखों मुकदमों में ’न्याय में देरी के कारण अन्याय है।’ आज की राजनीतिक सोच विभिन्न क्षेत्रों, जातियों ,वर्गो को अलग पहचान की ओर ले जा रही है। मजहबी तथा क्षेत्रीय अलगावाद देशतोड़क हैं तो भी तुष्टीकरण और वोटबैंक की रणनीति के तहत सेकुलर हैं। समान नागरिक सहिता राष्ट्र के नीति निर्देशक संवैधानिक तत्व हैं।जम्मू कश्मीर विषयक संवैधानिक सुधार अनुसूची 370 अस्थाई था, लेकिन स्थाई है । अलकायदा , लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआई आदि विदेशी आंतकवादियों का घुसपैठ आज भी जारी है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे राष्ट्र के विरूद्ध युद्ध बताया है। असम, अरूणाचल, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, नगालैण्ड़, सिक्किम पर चीन अपनी काक दृष्टि लगाए हुए है।अरूणाचल को तो वह अपने राष्ट्र का हिस्सा ही मानता है। इसपर चीनी रणनीतिकार झान लुई का स्वप्न -भारत को 25-30 भागों में करने का है। आज भी इन पूर्वोत्तर राज्यों में स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस जनता के बीच नहीं मनाई जाती। अल्पसंख्यकवाद राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है पर वोटबैक र्है । जो राजनीतिक दल राज्यों में भाषा ,जाति और क्षेत्र का लगाकर बने हैं वे अखिल भारतीय सोच कहॉं से लाएगें।
कश्मीर के कल्हण राजतंरगिणी में भारत की सनातन सस्कृति का इतिहास है। धर्मातरण के शताब्दियों बाद वही समाज आज स्वायत्तता के राष्ट्र विरोधी बात कर रहा है, यह स्वायत्तता जम्मू , लद्दाख को नहीं चाहिए। इससे तो मजहबी संगठन के तर्क, कि धर्मातरण राष्ट्रातरण है को ही बल मिलता है । आजादी के बाद तथाकथित राजनेता ने मुसलमान समाज को जोड़ने का नहीं मजहबी खौफ दिखाकर तोड़ने और वोटबैंक बनाने का काम किया है। जो आज स्वायत्तता की बात करते हैं वह कल का अलगावादी है। कश्मीरी संगठन हुर्रियत और पूर्वोत्तर राज्यों के उल्फा का इस मामले में समान एजेड़ा है। आज सोवियत यूनियन का हश्र हमारे सामने है, जहॉं राजनीतिक महत्वाकांक्षा कि लड़ाई में राष्ट्र को ही खंडित कर दिया गया। आर्थिक तंगी झेल रहे सोवियत यूनियन को सुधारवादी र्गोबाच्योव के मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था देना प्रारंभ किया , लेकिन येल्तसिन के रुस के राष्ट्रपति बनने और र्गोबाच्योव के नीचा देखने कि लालसा ने सोवियत यूनियन को ही विभाजित कर दिया।
अल्पसंख्यकवाद, आरक्षणवाद ,क्षेत्रवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद के कारण उत्पन्न भेदभाव से गण नष्ट हो रहे हैं।
संविधान के निर्माता भी सांस्कृतिक क्षमता से परिचित थे । 221 पन्नों के संविधान के कुल 22 भाग थे, तथा इसके हस्तलिखीत प्रति में भारतीय संस्कृति के प्रतिक राष्ट्रभाव वाले 23 चित्र थे। मुखपृष्ठ पर राम और कृष्ण तथा भाग एक में सिन्धु घाटी सभ्यता की स्मृति अंकित थी। नागरिकता के मैलिक अधिकार वाले पृष्ट पर श्री राम की लंका विजय, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों वाले पन्ने पर कृष्ण अर्जुन उपदेश वाले चित्र थे। वास्तव मे यह भारतीय संस्कृति के विकास का इतिहास है। अपने आखिरी भाषण में डा॰ अम्बेड़कर ने प्राचीन भारतीय परंपरा की याद दिलाते हुए कहा था - एक समय था जब भारत गणराज्यों से सुसज्जित था यह बात नहीं कि भारत पहले संसदीय प्रकिया से अपरिचित था। यहॉं वैदिक काल से ही एक परिपूर्ण गणव्यवस्था थी।
हिन्दु समाज प्राचीन काल से ही अपनी प्रजा या समाज को शिक्षित करना अपना मौलिक कर्तव्य समझती थी। यही वह आधार था जिसपर ‘हिन्दु संस्कृति’ स्थापित थी। शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आन्तरिक, रचनात्मक मानसिक विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त प्रणाली नियम, विधि और व्यवस्था विकसित करना था। शिक्षा को संविधान में उचित स्थान नहीं दिया गया और इसे मौलिक अधिकारों में भी नहीं शामिल किया गया। ऋग और अथर्ववेद एवं महाभारत में राज्यों और गणराज्यों के सिद्धान्तों को संविधान में यथोचीत स्थान नहीं मिला है।
आधुनिक भारत में विधान के राज्य के अभाव में महत्वपूर्ण आर्थिक एवं गैर आर्थिक संस्थानों यथा - निगम, बैंक, श्रम संगठनों , कर प्रणाली, प्रबन्धक संस्थायें में अपारदर्शिता, अक्षमता और स्वार्थपरक शक्तियॉं सर उठाने लगी हैं। जिसके फलस्वरूप लोकतंत्र के चारों स्तंम्भों - विधायिका ,न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया भी खोखली होती जा रही हैं।
जाति, मजहब, राजनीति और क्षेत्रीय आग्रह समाज को तोड़ते हैं संस्कृति ही इन्हें जोड़ती है। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म को जो उपदेश गणतंत्र के बारे में दिया था उस उपदेश को आज के राजनेताओं को गंभीरता से लेते हुए राष्ट्र की एकता और अखंड़ता सुनिश्चित करने के लिए विधान के राज्य के सिद्धान्तों को पूणरूपेण लागु कर देना चाहिए । एक नई व्यवस्था और कानून जो भारतीय संस्कृति पर निर्मित हो, विधान का राज्य, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक मूल्यों से सुसज्जित हो आज के भारत की आवश्यकता है।
समाचार पत्र आज मे 11 फ़रवरी 2010 को प्रकाशित दीनदयाल उपाध्याय के पुण्यतिथि पर विशेष करके मेरा यह आलेख छापा था.
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